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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir “यदा पंचावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह । बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम् । तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम् ।। इस श्लोक में योग का स्वरूप बताया है। ज्ञानेन्द्रियां, मन एवं बुद्धि की अविचल स्थिति को ही इसमें योग कहा है। इसी उपनिषद् में कहा है कि नचिकेता ने यमद्वारा प्रवर्तित "योगविधि" एवं विद्या को जान कर ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया। श्वेताश्वतर उपनिषद् में "ध्यानयोग" शब्द का प्रयोग तथा आसन एवं प्राणायाम का उल्लेख आता है। छान्दोग्य उपनिषद् में "आत्मनि सर्वेन्द्रियाणि प्रतिष्ठाप्य” इस वाक्य में सभी इन्द्रियों को आत्मा में प्रतिष्ठापित करने की ओर निर्देश हुआ है। बृहदारण्यक उपनिषद् में "तस्मादेकमेव व्रतं चरेत् प्राण्याचण अपान्याच्च" इस मंत्र में प्राणायाम की ओर संकेत किया है मुण्डकोषनिषद् में "ओमिति ध्यायथ आत्मानम्" इस वचन में समाधि की व्यवस्था दी है। इस प्रकार उपनिषदों में न केवल "योग" शब्द का प्रयोग हुआ है अपि तु योग की विधियों का भी स्वरूप बताया गया है। I | पाणिनीय सूत्रों में यम, नियम (जो योग के अंग है) तथा योग, योगिन् इन शब्दों की व्युत्पत्ति मिलती है। काशिका में योग शब्द की निष्पत्ति" युज् समाधौ (दिवादि गण) और "युजिर् योगे" ( रुधादि गण ) इन दोनों धातुओं से मानी है (द्वयोरपि ग्रहणम्) । आपस्तंव धर्मसूत्र (ई. पू. चौथी या पांचवी शती) में योग को काम, क्रोध, लोभ आदि 15 दोषों का निर्मूलन करने वाला शान्ति प्राप्त करने का उपाय बताया है। वेदान्तसूत्रों में योग की साधनाओं की ओर संकेत हुआ है। महाभारत शांति पर्व में "हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः” इस वचन में (जिस प्रकार सांख्य के प्रथम वक्ता कपिल थे, उसी प्रकार ) हिरण्यगर्भ ऋषि को योग शास्त्र के प्रथम प्रवक्ता कहा है । पातंजल योगसूत्र के भाष्य में कतिपय पूर्वमतों का निर्देश हुआ है. उनमें जैगीषव्य के मत को प्रमुखता दी है परंतु जैगीषव्य का कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। योगदर्शन का सर्वश्रेष्ठ तथा परम प्रमाणभूत ग्रंथ है, पतंजलि का योगसूत्र । इसे योगदर्शन भी कहते हैं। योगसूत्र के बहुत से संस्करण व्यासभाष्य और तत्ववैशारदी (वाचस्पतिमिश्रकृत टीका) सहित प्रकाशित हुए हैं काशी संस्कृत सीरीज में भोजराजकृत राजमार्तण्ड, भावगणेशकृत प्रदीपिका, नागोजी भट्टकृत वृत्ति, रामानन्दयतिकृत मणिप्रभा अनन्तदेवकृत चन्द्रिका एवं सदाशिवेन्द्र सरस्वती कृत योगसुधाकर इन छह टीकाओं के साथ पातंजल योगसूत्रों का प्रकाशन हुआ है। यह सूत्रग्रंथ समाधि (51 सूत्र ) साधना (55 सूत्र ) विभूति, (55 सूत्र) एवं कैवल्य (34 सूत्र) नामक चार अध्यायों में विभाजित हैं । कुल सूत्र संख्या है 195 । परंपरा के अनुसार पतंजलि शेष भगवान के अवतार माने जाते हैं। उनकी स्तुति करने वाले दो श्लोक सर्वत्र प्रसिद्ध हैं : 1) पातंजलमहाभाष्य - चरक प्रतिसंस्कृतैः । मनोवाक्कायदोषाणां हन्त्रेऽहिपतये नमः ।। 2) योगेन चित्तस्य पदेन याचा मलं शरीरस्य च वैद्यकेन योऽपाकरोत् तं प्रवरं मुनीनां पतंजलि प्रांजलियनतोऽस्मि ।। प्रथम श्लोक चरक संहिता की टीका के आरंभ में आता है और दूसरा श्लोक विज्ञानभिक्षु के योगवार्तिक में उल्लिखित है। इन श्लोकों के कारण आधुनिक विद्वानों ने पतंजलि एक या अनेक, यह विवाद खडा किया है। इस विचार में प्रो. बी. लुडविख, डॉ. हावर एवं प्रो. दासगुप्त इत्यादि विद्वान दो या तीन पतंजलि नहीं मानतें किन्तु जैकोबी, कीथ, वुडस् इत्यादि विद्वान इस मत को नहीं मानते। योगसूत्र के काल के विषय में भी मतभेद हैं। भारतरत्न पां. वा. काणे, योगसूत्र का काल ई. पू. दूसरी शती से पूर्व नहीं मानते। डॉ. राधाकृष्णन ई. 200 ई. के पश्चात् नहीं मानते। योगसूत्र के व्यासभाष्य की तिथि भी विवाद्य है, किन्तु इन दोनों की निर्मिति में कई शतियों का अन्तर माना जाता है। महाभारत के शान्तिपर्व में योग की विशेषता अन्यान्य प्रकार से बताई है; जैसे योग की विविध साधनाओं से काम, क्रोध, लोभ, भय एवं निद्रा जैसे दोषों का निराकरण किया जा सकता है। हीन वर्ण के पुरुष या नारी भी योग मार्ग के द्वारा परमलक्ष्य की प्राप्ति कर सकते है। आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होने पर योगी अपने को सहस्त्रों शरीरों में स्थानान्तरित कर सकता है। आत्मनां च सहस्राणि बहूनि भरतर्षभ । योगी कुर्याद् बलं प्राप्य तैश्च सर्वेर्महीं चरेत् । । ( शान्ति 286/26) सांख्य के समान दूसरा ज्ञान नहीं और योग के समान कोई आध्यात्मिक शक्ति नहीं है। श्वेताश्वतर उपनिषद् के "न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः । प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम् ।।" इस मंत्र में योग का फल बताया है कि योगसाधना से साधक का शरीर योगाग्निमय होता है और उसे रोग जरा एवं मृत्यु का उपसर्ग नहीं होता । भगवद्गीता, योगशास्त्र का प्रमाणभूत ग्रंथ है। गीता के छठे अध्याय में योगसिद्ध या योगारूढ पुरुष की श्रेष्ठ अवस्था का वर्णन करते हुए कहा है कि : सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ।। अर्थात् योगयुक्त चित्त होने पर साधक सर्वभूतमात्र में आत्मा को और आत्मा में सारे भूतमात्र को देखता है। वह सर्वत्र समदर्शी होता है। संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 143 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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