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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दूसरी जांघ हाथ से पकड उसे बीच में से चीर कर शरीर के दो भाग कर दिये। बाद में बन्दी राजाओं को विमुक्त कर, जरासन्ध के पुत्र को गद्दी पर बिठा कर और पर्याप्त द्रव्य ले कर श्रीकृष्ण भीमार्जुनों के साथ इन्द्रप्रस्थ को वापस आये। इसके बाद भीम आदि चार पाण्डवों ने चारों दिशाओं में जा कर राजाओं से धन प्राप्त किया और राजसूय यज्ञ की सिद्धता होने लगी। ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि सभी को निमंत्रण भेजा गया। उसके अनुसार सब लोक एकत्रित हुए । हस्तिनापुर से भीष्म, द्रोण, धृतराष्ट्र, दुर्योधन, आदि महान् लोग आने पर यज्ञका कुछ न कुछ काम हर व्यक्ति पर सौपा गया और यज्ञ का आरम्भ हुआ। जब यज्ञ में अग्रपूजा का प्रश्न उठा तब धर्म ने भीष्म से पूछा, "किस व्यक्ति को यह बहुमान देना योग्य होगा ?" भीष्म ने उत्तर दिया, “भगवान श्रीकृष्ण ही इसके योग्य व्यक्ति हैं।" इसके अनुसार सहदेव ने सबसे पहले श्रीकृष्ण की पूजा की। शिशुपाल को यह बात असह्य हुई। वह पाण्डवों, भीष्म और श्रीकृष्ण को भी क्रोधाविष्ट हो कर मनचाही गालियों देने लगा । यह देख कर श्रीकृष्ण एकत्रित समूहों को उद्देश्य कर बोले कि "सुनिये, शिशुपाल की माता को दिये गये वचन अनुसार मैने आज तक इसके सौ अपराध सहन किये हैं। अब यह वध करने के सर्वथा योग्य है।" उनके स्मरण करते ही उपस्थित हुए सुदर्शन चक्र से श्रीकृष्ण ने शिशुपाल का शिरउच्छेद किया। उसी समय धर्मराज ने शिशुपाल के पुत्र को वहीं राज्याभिषेक किया। अवभृतस्नान के उपरान्त यज्ञ समाप्त होने पर सब को यथोचित सम्मानित कर बिदा किया गया। सब लोग स्वस्थान लौटे। केवल दुर्योधन और शकुनि मयप्रासाद की शोभा देखने के लिये ठहरे। मयप्रासाद का दर्शन देखते देखते कई अवसरों पर दुर्योधन की अप्रतिष्ठा हुई। वह धरती को पानी समझ कर अपनी धोती सम्हाल कर चलता और पानी को भूमि समझ कर चलता तो पानी में गिर पड़ता। यह समझ कर कि दरवाजा बन्द है वह उसे खोलने का प्रयत्न करता और दरवाजे को खुला जान कर जाने लगता तो दीवार से जा टकराता । ऐसे हर प्रसंग में उसकी खिल्ली उडाई गयी। भीम ने तो "अन्धे का बेटा" कह कर उसे चिढाया। तब शकुनि और दुर्योधन ने हस्तिनापुर का रास्ता सुधारा रास्ते से चलते चलते दुर्योधन को मूक देखकर शकुनि ने इस मूकता का कारण जानना चाहा । दुर्योधन तो मन ही मन कुढ रहा था । बोला "पाण्डवों का यह वैभव और मयप्रासाद देखते समय मेरा जो अपमान हुआ है वह मेरे लिए असह्य है, उस वैभव को प्राप्त कर सकने का कोई उपाय समझ में न आने से ऐसा लगता है कि मै आत्महत्या कर लूं।" शकुनि ने कहा कि इसके लिये रामबाण युक्ति है। सुनो "धर्मराज को द्यूतकला का विशेष ज्ञान नहीं परन्तु द्यूत का निमंत्रण वह कभी भी अस्वीकृत न करना उसका व्रत है। मै स्वयं कपट द्यूत में प्रवीण हूं। हम पाण्डवों को द्यूत खेलने के लिये आमंत्रित कर उनका समस्त राज्य जीत लेंगे परन्तु यह सब धृतराष्ट्र की सम्मति से ही करना होगा।" हस्तिनापुर में आते ही यह बात धृतराष्ट्र को सुनाई गयी। पहले पहल धृतराष्ट्र ने इसमें बहुत आनाकानी की परन्तु अन्त में उसने सम्मति दी। इसके लिये एक उत्तम प्रासाद का निर्माण होने पर धृतराष्ट्र ने पाण्डवों के पास विदुर के द्वारा यह सन्देश भेजा कि, “वे यहां आ कर इस नवीन प्रासाद का दर्शन करें और यहीं कौरवों के साथ मित्रत्व की भावना से द्यूत खेलें । यह सुनकर धर्मराज द्रौपदी और अन्य पाण्डव वहाँ उपस्थित हुए । यथासमय द्यूत का प्रारम्भ हुआ। जो दांव शकुनि लगाता था उसमें उसी की जीत थी । सम्पूर्ण राज्य, बन्धु और स्वयं धर्मराज बाजी हार जाने पर शकुनि बोला, "अभी द्रौपदी तो है। सम्भव है इस दांव में तुम्हारी जीत हो।" परन्तु वह दांव भी शकुनि ने ही जीता। इसके अनन्तर दुर्योधन के कहने पर दुःशासन द्रौपदी को भरी सभा में खींच लाया । विकर्ण और विदुर ने कहा कि, "द्रौपदी की यह विटम्बना इस सभा को शोभा नहीं देती। लेकिन कर्ण की सूचना के अनुसार दुःशासन ने द्रौपदी का चीरहरण करना चाहा। तब द्रौपदी ने दीनता से सर्व शक्तिमान् श्रीकृष्ण की प्रार्थना की। उस संकट के समय एक वस्त्र के नीचे दूसरा, दूसरे के नीचे तीसरा इस प्रकार सैकडो वस्त्र निकले । अन्त में दुःशासन थक कर बैठ गया । दुर्योधन ने अपनी बायी जंघा खुली करके द्रौपदी को दिखाई। दोंनो बार भीमने दुःशासन का रक्तप्राशन करने की और दुर्योधन की बायी जंघा गदा के प्रहार से कुचलने की प्रतिज्ञाएँ की। जो कुछ घटना हुई वह अनुचित हुई यह जान कर धृतराष्ट्र ने द्रौपदी को वर मांगने को कहा। उस वर के अनुसार पाण्डवों को पुनः राज्य प्राप्त हुआ अनंतर वे इन्द्रप्रस्थ को लौटे। यह बात कर्ण, दुर्योधन इत्यादि को अमान्य थी । दुर्योधन ने धृतराष्ट्र से हठ किया कि दूसरी बार द्यूत खेलने के लिये पाण्डवों को बुलाना ही होगा। उसके अनुसार धृतराष्ट्र ने द्यूत का निमंत्रण भेज कर पाण्डवों को आधे रास्ते से वापस बुलाया । पाण्डवों को आने पर पुनः द्यूतारम्भ हुआ। इसलिये उसको "अनुद्यूत" कहा जाता है। इस अनुद्यूत में एक ही दांव और एक ही बाजी थी। जो हारेगा उसे बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास करना होगा। अज्ञातवास में पहुंचाने जाने पर फिर बारह वर्ष वनवास करना होगा। यह भी तय हुआ कि "यदि पाण्डव हारें तो उन्हें द्रौपदी के साथ इस बाजी की भुगतान करनी पडेगी।" यह दाँव भी शकुनि ने जीता। इसलिये द्रौपदी को साथ लेकर पाण्डव वन में गये। कुन्ती विदुर के घर में रहने लगी। धृतराष्ट्र ने पाण्डवों के साथ रथ, दास, दासी आदि सामग्री भेजी थी। For Private and Personal Use Only संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 95
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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