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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संशयतिमिरप्रदीप । ३५ स्नानं चर्चा तु चार्चिक्यं स्थासकोग्य प्रबोधनम् । अर्थात्-चर्चा, चार्चिक्य और स्थासक ये तोन नाम चन्दनादि सुगन्ध वस्तुओं से लेप करने के हैं। "लेपे च सेवने चादी चर्चयामि" इति । अर्थात् - लेपन तथा पूजन अर्थ में “चर्चयामि" ऐसा प्रयोग करना चाहिये । कहने का मतलब यह है कि चर्च धातु के प्रयोग बहुधा करके लेपन अर्थ में पाते हैं और कहीं कहीं पूजन अर्थ में भी भाजाते हैं। इस लिये जहां गन्ध अथवा पुष्य पूजन का सम्बन्ध हो वहां पर ऊपर लगाने अथवा चढ़ाने का अर्थ करना चाहिये । और जहां अष्टद्रव्यादिकों का सम्बन्ध हो वहां पूजन अर्थ करना चाहिये । इस अर्थ के करने में किसी तरह की बाधा नहीं पातो । बाधा उस समय में आ सकतो थी जब और पार्ष ग्रन्थों में लेपन का निषेध होता इतने पर भी यदि पूजन अर्थ ही करना योग्य माना जाय तो, भावसंग्रह, वसुनन्दि संहिता, श्रावकाचार, पूजासारादि ग्रन्थों में खास लेपन शब्द का प्रयोग पाया है, वहां पर किस तरह निर्वाह किया जायगा? प्रश्न-वसुनन्दि संहिता, तथा एकसन्धि संहिता के श्लोकों से विरोध का आविर्भाव होता है? उत्तर-वध किस तरह? प्रश्न--यदि यही बात ठीक मानलो जाय तो, क्या केवलौभगवान् के दर्शन पूजनादि करने वाले अज्ञानी अथवा अधर्मामा कहे जा सकेंगे? For Private And Personal Use Only
SR No.020639
Book TitleSanshay Timir Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherSwantroday Karyalay
Publication Year1909
Total Pages197
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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