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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संशयतिमिरप्रदीप । wwwAMM नों के निग्रन्यता का बाधक है। परन्तु इसके बिना काम नहीं चलता। इस लिये मार्जन क्रियाको शास्त्रानुसार होने से लगाना ही पड़ता है । परन्तु गन्धपुष्यादिकों के तो प्रभाव में भी काम निकल सकता है। दूसरे वस्त्र का उसी समय तक सम्बन्ध रहने से प्रतिमा. षों को शान्त मुद्रा में किसी तरह का विकार भी नहीं पाता । और गन्ध पुष्यादिकों के सम्बन्ध से तो प्रत्यक्ष शान्तमुद्रा में विकार दिखाई देता है। इसलिये भी कह सकते हैं कि गन्धपुष्यादिको का चढ़ाना अनु. चित है। उत्तर-किसी विषय को बाधा देना उसी समय ठीक कहाजा सकता है कि जब बाधा देने वालों का कहना निर्दोष सिद्ध हो जाय। और यदि अपना कहा हुआ अपने पर ही सवार हो जाय तो, कोन बुद्धिमान उसे योग्य कहेगा? तो जब तुम कपड़े को निन्य स्वरूप का बाधक मान चुके हो परन्तु अनुरोध वश तथा शास्त्रानुसार होने से उस का उपयोग करना ही पड़ता है। फिर उसी तरह गन्ध लेपन को शास्त्रानुसार स्वीकार करने में कोन सी हानि कही जा सकेगी ? यदि शास्त्रों में गन्ध लेपन का विधान न होता और लोग मनमानी प्रवृति से उसे स्वीकार करने लग जाते तो, तुम्हाराकहना बेशक ठोक कहा जा सकता था। परन्तु ऐसा न होकर जब वह शास्त्रानुसार है फिर उसे सादर स्वीकार करना चाहि. ये । गन्ध लेपन से शान्तमुद्रा का भङ्ग बताना भी ठीक नहीं है। जब थोड़े से गन्ध लेपन से शान्तमुद्रा For Private And Personal Use Only
SR No.020639
Book TitleSanshay Timir Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherSwantroday Karyalay
Publication Year1909
Total Pages197
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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