SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संशयतिमिरप्रदीप। १६३ करने के लिये कल्पना किये गये हैं इसलिये पूजनादि विधि में उनका यथा योग्य सत्कार सम्यग्दृष्टि पुरुषों को भी करना चाहिये । रही यह बात कि जिनभगवान् की पूजन से ही जव विघ्नों का नाश हो जाता है फिर शासनदेवताओं के मानने की क्या जरूरत है ? यह कहना ठीक है और न इसमें किसी तरह की शंका है परन्तु विशेष यह है कि प्रतिष्ठादि कार्यों में जिनपूजनादि के होने पर भी बाह्यप्रबन्ध की आवश्यक्ता पड़ती है उसी तरह यहां पर भी समझना चाहिये। जिस कार्य के करने को वसुंधरापति समर्थ होता है उसे और अधिकारी नहीं कर सकते पर तु इससे यह तो सिद्ध नहीं होता कि वे बिल्कुल तिरस्कार के ही योग्य समझे जाँय। इसी तरह जिनपूजनादि सर्वमनोरथ के देने वाली है परन्तु उसकी निर्विघ्नसिद्धि के लिये शासनदेवता भी कुछ सत्कार के पात्र हैं। प्रश्न- आदि पुराण में “विश्वेश्वर" शब्द आया है। उसका अर्थ व्युत्पत्ति के द्वारा तो तीर्थंकर का हम बताचुके हैं परन्तु तुमने जो उस अर्थ को बाधित ठहराया वह कैसे ? उत्तर पहले तो उस श्लोक के तात्पर्य से ही वह अर्थ तीर्थंकरादि के सम्बन्ध में संघटित नहीं होता क्योंकि उस में मांस वृत्ति वाले देवता असेवनीय बताये हैं और शासनदेवताओं की तो मांसवृत्ति नहीं है। इसलिये स्वयं शासन देवताका विधान उस श्लोक से हो सकेगा। अस्तु, थोड़ी देर के लिये इसी असमीचीन कल्पना को ठीक मान लिया जाय तो नीचे लिखे श्लोकों का कैसे निर्वाह होगा ? For Private And Personal Use Only
SR No.020639
Book TitleSanshay Timir Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherSwantroday Karyalay
Publication Year1909
Total Pages197
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy