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संघपट्टक, जो आप के करकमलों में विराजित है, के-रचयिता आचार्य श्री जिनवल्लभसूरिजी महाराज हैं। उनका अस्तित्व समय वि. सं. ११२५-६७ है, जैसा किश्री जिनचंद्रसरि रचित संवेगरंगशाला से सिद्ध है। सूरिजीने उपर्युक्त ग्रन्थ का संशोधन वि. सं. ११२५ में किया था। इस संघपट्टक की रचना आकस्मिक घटना नहीं पर एक सत्याश्रित सिद्धान्त पर आधृत है।
श्री जिनवल्लभसूरिजी के जीवन से ज्ञात होता है कि, उनका चित्रकूट-चिचौड़ में अच्छा प्रभाव था। आपने वहाँ पर, अनेक प्रकार के कष्ट व यातनाएँ सह कर, जैन शासन की जो सेवा की है, वह उल्लेखनीय है। जैन संस्कृति के इतिहास में इन सेवाओं का बहुत बडा महत्त्व है। यही कारण है कि, चित्तौड का श्री संघ सूरिजी का परम भक्त और आज्ञानुवर्ती था। आप के सदुपदेश से, वहाँ के श्रावकोंने शासननायक महावीरस्वामी का नवीन विधिचैत्य निर्माण करवाया था। सूरिजी द्वारा ही इस की प्रतिष्ठा का महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पन्न हुआ था और संघ व्यवस्था सूचक प्रस्तुतः “संघपट्टक" मूल, (४० श्लोक) उपर्युक्त विधिचैत्य के मुख्य द्वार पर पाषाण-शिला पर खुदवा कर, लगाया गया था, जैसा कि अंचलगच्छीय श्री महेन्द्रसूरि प्रणीत 'शतपदी' से सिद्ध होता है।
जैन साहित्य में, इस ग्रन्थ का स्थान कितना आदरणीय समझा जाता है, इस का अध्ययन कितने व्यापक रूप से होता आया है, इस का ज्ञान हमें, उन वृत्तियों से होता है, जो समय समय पर, विभिन्न आचार्य, मुनि और जैन गृहस्थों द्वारा इस पर रची गयीं, टीकाओं से विदित होता है कि मध्यकालीन जैन संस्कृति और साहित्य में यही एक ऐसी मूल्यवान् कृति है, जिस पर प्रकाण्ड पंडितों को भाष्य लिखना पडा। यह आकर्षण व्यक्ति मूलक नहीं पर गुणमूलक है । ___ अद्यावधि रचित वृत्तियों की संख्या आठ तो ज्ञात हो चुकी है। इन का उल्लेख प्रो. १, जैसलमेर जैन भण्डार सूची, पृ. २१ ।
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