SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्याग करने का उपदेश दिया है। दूसरे पद्य में श्रोताओं की योग्यता को दिखलाया है । ३-४ पद्य में उपमाओं बारा चैत्यवासियों को 'जिनोकि प्रत्यर्थी' सिद्ध करते हुए पूर्व पद्य में । औद्दोशिक मजन, २ जिनगृह में निवास, ३ वसतिवास के प्रति मात्सर्य, ४ द्रव्यसंग्रह, ५ श्रावक भक्तों के प्रति ममत्व, ६ चैत्य स्वीकार (चिन्ता), ७ गद्दी आदि का आसन, ८ सावध आचरणा. १ सिद्धान्तमार्ग की अवज्ञा और १० गुणियों के प्रति द्वेष का विवेचन । इस प्रकार विवेचनीय दश द्वारों का उल्लेख किया है। ६ से ३३ पद्य पर्यन्त दश द्वारों का विशद् वर्णन किया है। ३४-३५ में प्रन्थरचना का कारण कह कर, ३६-३७ में सुविहित साधुवृन्द के पूताचार की प्रशंसा की है। ३८वें ३९-४०वें पद्य में भस्मकम्लेच्छ सैन्य की उपमा प्रदान कर कदर्थना करते हुए उपसंहार किया है। इस लघुकाय चार्चिक प्रन्थ को भी गणिजीने निदर्शना, अप्रस्तुत प्रशंसा, अर्थान्तरन्यास, तुल्ययोगिता, रूपक, उपमा, अनुप्रासादि अलंकारों से सजित कर अपनी बहुमुखी प्रतिभा का सुन्दर परिचय दिया है। साथ ही इस में स्रग्धरा, शार्दूलविक्रीडित, मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी, द्विपदी, पृथ्वी, मालिनी, वसन्ततिलका, आदि ८ पृथक् २ छन्दों में प्रथित कर छन्दशास्त्र पर एकाधिपत्य भी सिद्ध किया है। समप्र काव्य ओजःगुण से परिपूर्ण होने के कारण पाठक के हृदय में भी आनन्द ही उत्सन्न कर देता है। सडपट्टक की टीकाएँ-इस लघु काव्यग्रन्थ पर अनेक मनीषियोंने भाष्य, वृत्ति, अवचरि, बालावबोध आदि रच कर इसकी महत्ता, उपयोगिता स्थापित की है। वर्तमान में इस पर वृत्ति आदि ८ आठ वृत्तिये ही प्राप्त होती है। जिसकी तालिका निम्नलिखित है। , बृहवृत्ति जिनपतिसूरि २ लघुवृत्ति श्रीलक्ष्मीसेन ३ लघुवृत्ति हर्षराज गणि ४ अवचूरि उ. साधुकीर्ति ५ पञ्जिका देवराज ६ षष्ठवृत्ति विवेकरत्नसूरि ७ षष्टवृत्ति (2)x बालावबोध उ. लक्ष्मीवल्लभ । इनमें आचार्य श्रीजिनपतिसूरि की टीका सब से बडी है और सर्वश्रेष्ठ भी। यह टीका अनुवाद सह पूर्वम प्रकाशित हो चुकी है। फिर हाल यह ग्रन्थ अवचूरि और दो लघुवृत्तियों के साथ प्रकाशित हो रहा है। सवरिकार-महोपाध्याय साधकीर्ति खरतरगच्छीय श्रीजिनभद्रसूरि की परम्परा में वाचनाचार्य श्रीममरमाणिक्य के शिष्य थे। आपने सं. १६१७ में युगप्रधान श्रीजिनचन्द्रसरि रचित पोषध. विधिप्रकरणवृत्ति का संशोधन किया था। सं १६२५ में आगरा में सम्राट अकबर की सभा में पौषध. विधि विषय में श्री बुद्धिसागरजी के साथ शास्त्रार्थ कर उन्हें निरुत्तर किया था । १६३२ में वैशाख सुदि १५ को श्रीजिनचन्द्रसूरिजीने आपको उपाध्याय पद प्रदान किया था। सं. १६४६ माघ वदि १४ को जालोर में आप का स्वर्गवास हुआ था। आपने अपने जीवनकाल में सप्तस्मरण बालावबोध आदि अनेकों प्रन्थों की रचना की. जिन में २३ छोटे-मोटे प्रन्थ प्राप्त होते हैं। प्रस्तुत अवचूरि की रचना १६१९ माघ सुदि की ५ पंचमी को पूर्व हुई हैं। यह अवचूरि होते हुए भी स्पष्टार्थ प्रकाशित होने के कारण टीका का ही सादृश्य रखती है। लक्ष्मीसेन-इनके सम्बन्ध में अन्य कोई भी उल्लेख प्राप्त नहीं होते हैं। केवल इस टीका की प्रशस्ति से ही ज्ञात होता है शि-वे खरतरगच्छीय विमलकीर्तिवाले श्रावक वीरदास के पौत्र और धीरवीर xनं. ५-६-७, जिनरत्नकोषानुसार. १. देखे युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि पृ. १९२-से उद्धृत. २. इसी प्रन्थ के पृ. २३. ३. इसी ग्रन्थ के पृ. ४३-४४, श्लो. २-३-४-५. For Private And Personal Use Only
SR No.020632
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshraj Upadhyay
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1953
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy