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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूर्वजों के उद्देश्य से जिनालय में यात्रा और जिनस्नात्र आदिक उपायों से और तमसितक-अर्थात् अमुक उपद्रव की निवृत्ति के लिये जिनभगवान के उद्देश्य से 'इतना द्रव्य देता हूँ' इस प्रकार के नियम कराने के, रात्रिजागरण और शान्तिक पौष्टिक आदि कर्म के छल (बाहना ) से नाम मात्र के जैन इन धूर्त चैत्यवासी लोगों के द्वारा ये श्रद्धालु भोलेभाले श्रावक भूतलगे के समान ठगे जा रहे हैं, यह अत्यन्त खेद की बात है । इस विषय में समझने की बात इतनी है कि-ये सभी इन लोगों के द्वारा अविधिपूर्वक कराये जाते हैं इस लिये इन सब का प्रतिषेध किया गया है, विधिपूर्वक तो इन की कर्त्तव्यता इष्ट ही है । इन की कर्त्तव्यता का स्थापन पूर्वोक्त सातवें और वीस काव्य में किया गया है ॥ २१ ॥ 'सर्वत्रा०'-इति-जिनके आस्रव अर्थात् पापागमन के द्वार खुले हुए हैं, जिनकी श्रोत्रादि पांचों इन्द्रियाँ अपने विषयों में आसक्त हैं, गौरव अर्थात् ऋद्धि रस शाता, इन तीन गौरव से चण्ड-रौद्र मनोदण्डरूपी तूफानी घोडा जिनका उछल रहा है, कषायरूपी सर्प जिनके बढ़ रहे हैं, जो सभी प्रकार के अकृत्य कर्म करने में सर्वदा तत्पर रहते हैं, जो सभी प्रकार के अकृत्य कर्म करने में सर्वदा तत्पर रहते हैं-जो अन्त्य-अन्तिम अर्थात दशवां आश्चर्य-असंयतियों की पूजारूप जो कि सब-दशों आश्चर्यों का राजा है उसके आश्रित होकर उद्धत बुद्धिवाले ये हीनाचारी लोग श्रेष्ठसदाचारी मुनियों के मस्तक पर खड़े हो कर खुश हो रहे हैं, एवं समाज में प्रतिष्ठा भी पा रहे हैं, अहहह !!! यह कैसा अनर्थ हो रहा है १ ॥ २२ ॥ 'सर्वारम्भ.'-सभी प्रकार के सावध व्यापार-धनधान्यादि संग्रहमें-तत्पर गृहस्थ लोग भी यदि पर्व आदि दिनों में एकाशन विगयरहित भोजन आदि का प्रत्याख्यान-नियम लेकर उनके पालन में कथश्चित् भूल कर बैठते हैं तो वे भी अत्यन्त अनुताप-पछतावा-करते हैं कि-' मुझ कर्मभागी का प्रत्याख्यान भग्न हो गया' परन्तु ये हीनाचारी लोग छ बार-तीन बार सन्ध्या के प्रतिक्रमण में और तीन बार प्रातःकाल के प्रतिक्रमण में, इस प्रकार छ बार-'त्रिविध-मन वचन काया के तीन योगों से, त्रिधा-करण १, कारण २, अनुमोदन ३, इन तीन कारणों से प्रत्याख्यान करता हूँ ' इस प्रकार प्रतिदिन दोनों समय मुंह से बोलकर भी स्वयमेव उसका खण्डन करते हैं । एसे हीनाचारी लोग क्या कभी तपस्थी, ज्ञानी या व्रती हो सकते हैं ? कभी भी नहीं। इनमें तप ज्ञान और व्रत का होना तो शशशृङ्ग जैसा ही समझना चाहिये ॥ २३ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020632
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshraj Upadhyay
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1953
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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