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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गई । जब आचार्यपद प्राप्त कर लिया तब वह गुणहीन साधु जिनालय को अपना घर समझता है । अपने को इन्द्र मानता है। विद्वानों को मूर्ख जानता है और संसार को तुच्छ समझता है । चैत्यवासियों की यह बात सर्वविदित है ॥ १५ ॥ फिर भी 'यैर्जातो' इति-अधमों में भी अधम, मुनिवेषधारी ठग, इन श्रावकों को नाथे हुए बैल के समान इधर-उधर जहाँ चाहे वहाँ नचाते हैं। ये श्रावक न उनके पुत्र हैं, न उन से पालित हैं, न खरीदे हुए हैं, न उनके ऋणी हैं, न पहले कभी मेंट हुई थी, न ये उनके मित्र है, न इन ठगों ने पहले कभी रुपये-पैसों से उन को सन्तुष्ट किया है। अरे ! तो भी देखो यह क्या विधिचित्य है जो ये श्रावक लोग इन ठगों के अधीन हो गये । अहो ! इस अवापतन का प्रतीकार कैसे हो ? इस अनर्थ का प्रतीकार नहीं हो रहा है । इससे यही ज्ञात होता है कि इस समय संसार में कोई शासक नहीं रहा, कि जिसके आगे जाकर पुकार की जाय ।। १६ ॥ फिरभी 'किं.' इति-अरे ! क्या इन मूर्ख लोगों को दिग्भ्रम( वेसमझी ) हो गया है ? क्या ये अन्धे और बहेरे हो गये हैं ? क्या इन लोगों को योग( मन्त्रादि प्रयोग) और चूर्ण( शिरपर डालने की भुरकी) द्वारा वश में कर लिया है ?, क्या इनका भाग्य खराब हो गया है ? अथवा धृोंने इन्हें ठगलिया है क्या ? या ये लोग ग्रह गृहीत( पागल ) तो नहीं हो गये है ? जो कि प्रचुर दोषों को देखते हुए भी वे मूर्ख लोग जिनागम के शिरपर पैर रखकर कुमार्ग पर पड़े हुए हैं, उस परसे हटने का नाम ही नहीं लेते । अरे ! इतना ही नहीं जो लोग कुपथ को दूर करने का प्रयत्न करते है तो उनसे ये मूर्ख लोम द्वेष भी करते हैं, अहो! यह कैसा भयङ्कर पतन है ? ॥ १७॥ फिरभी 'इष्टावाप्ति०'-अविधिपूर्वक अर्थात् रात्रि में मूर्ख लोकों द्वारा विहित तीर्थङ्करस्नात्र, पापरूपी पङ्क में अवश्यमेव डुबाता है। क्योंकि अब रात्रि में तीर्थङ्करस्नात्र किया जाता है उस समय इकट्ठे हुए जनसमुदाय अर्थात् स्त्री पुरुषों के झुण्ड में बहुतसी एसी स्त्रियाँ आती हैं जो विटों की अर्थात् वेश्यापतियों की, नटों की अर्थात् नाटक करनेवालों की, भटों की अर्थात् मुस्तण्ड गुण्डों की अर्थात् दासों की प्रिय उपनायिकायें होती हैं, इस लिये ये विट नट आदि भी रात्रि में तीर्थङ्करस्नात्र में एकत्रित होते हैं । वे सभी नर-नारियां हृदय में संगम की अभिलाषा लिये हुए रहती हैं। तथा वे लोगराग, द्वेष, मत्सर-दूसरे के गुणों के प्रति असहिष्णुता, तथा ईर्ष्या अर्थात् अपनी For Private And Personal Use Only
SR No.020632
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshraj Upadhyay
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1953
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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