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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रहित ) इन दोनों का अर्थ जाननेवाला कौन एसा विद्वान होगा जो द्वेष करेगा ? अर्थात् विद्वान् पुरुष कभी भी उसका द्वेष नहीं करेगा ॥ ८ ।। फिर भी करते हैं 'चित्रोत्सर्गा०' इति-इस जिन प्रवचन में जो निशीथसूत्र नाम का छेदसूत्र है वह तो मानो मोक्षनगरी का एक दूत ही है। वह निशीथसूत्र अनेक प्रकार के उत्सर्ग और अपवादनय के प्रतिपादन से युक्त है । उस निशीथसूत्र में गृहस्थों के घर में उतरने के बहुत से मेद कहे गये हैं। उस में पहले उत्सर्गरूप से कहा गया है फिर अपवाद से स्त्री, पशु, पण्डक आदि के संसर्ग से युक्त वसति में साधु को नहीं उतरना चाहिये, इस प्रकार से कहकर उसका अपवाद भी किया है कि-साधुलोग ऐसी वसती में भी यतना से रह सकते हैं । इसका निष्कर्ष यही हुआ कि निशीथसूत्र में स्त्री पशुपण्डक आदि से युक्त अथवा उससे रहित, इन दोनों प्रकार के गृहस्थ के घरों में साधुओं का उतरना नियमतः प्रतिपादित है । परन्तु जिनमन्दिर में उतरने के लिये कहीं भी नहीं कहा गया है ॥९॥ (४-५-६) अथ गृहस्थ और चैत्य, इनका स्वीकार विषयक चतुर्थ, पञ्चम तथा षष्ठ इन तीन द्वारों को कहते हैं 'प्रव्रज्या०' इति-तीर्थङ्करोंने धन स्वीकार करनेको प्रव्रज्याका विरोधी कहा है । फिर ये मेरे श्रावक हैं ' इस प्रकार से सर्वारम्भी श्रावकों पर ममत्व रखना तो अत्यन्त सावध है। फिर यदि ' यह जिनालय मेरा है' इस प्रकार जिनालय के प्रति साधु, ममता रखे तो फिर उसमें अत्यन्त निन्दनीय मठपतित्व-मठधारीपना-आ जाता है । इस लिये मुक्ति के अभिलापी साधुओं को चाहिये कि वे अर्थ श्रावक और जिनालय, इन सबों पर प्रव्रज्या को दुषित करनेवाली ममता कभी भी न करें ॥ १० ॥ (७) अप्रमार्जित आसन विषयक सातमा द्वार कहते हैं 'भवतिः' इति-गद्दी पर बैठने से असंयम अवश्यम्भावी है, क्यों कि उसकी प्रतिलेखना नहीं हो सकती। तथा गद्दी पर बैठने से विभूषा-शोभा होती है और साधुओं के लिये विभूषा का शास्त्र में निषेध किया गया है। गद्दी पर बैठना यह एक राजचिह्न है अतः साधुओं के लिये त्याज्य है। गद्दी पर बैठने से लोग साधुओं का उपहास करते हैं कि-' अरे ! देखा ऐसे यह मुण्डित होकर भी गद्दी पर बैठता है । ' इस प्रकार लोगों में निन्दा भी होती है । और इसमें परिग्रह दोष तो स्पष्ट ही है । गद्दी पर बैठनेसे साधु की सुखभोगरूप तीव्र अभिलाषा भी प्रकट होती For Private And Personal Use Only
SR No.020632
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshraj Upadhyay
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1953
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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