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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपोद्घात जुगपवरागमपीऊस-पाणपीणियमणाकया भव्वा । जेण जिणवल्लहेणं, गुरुणा तं सबहा वंदे ॥ जिस समय चैत्यवासी आचार्यगण ज्ञानवाद को प्रधानता देकर भगवत्प्ररूपित सैद्धान्तिक आचरणों की अवहेलना कर रहे थे, भगवन्नाम से ही चैयों में निवास कर रहे थे, मठपतियों की तरह चैत्यों के सर्वाधिकारी बन कर वैभव साम्राज्य में आनन्द-उत्सव मना रहे थे, उस समय में इस चैत्यवास की दुर्व्यवस्था से व्यथित होकर सर्वप्रथम आचार्य श्री हरिभद्रमारने इस दुराचार का उग्र विरोध किया था, पर इसका कोई ठोस परिणाम हुआ हो, कहा नहीं जा सकता । तदनन्तर प्रमुखरूप से उप्र विरोध करनेवाले आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि हए, जिन्होंने चैत्यवासियों की प्रमुख नगरी अणहिलपुरपत्तन में जाकर, महाराजा श्री दुर्लभराज के समक्ष चैत्यवासि आवायों के सन्मुख ही सैद्धान्तिक आचरणाओं को शुद्ध प्ररूपणा कर सुविहित पक्ष [ खरतर पक्ष ] की स्थापना की थी। सुविहित पक्षीय आवरणाओं के प्ररूपक और चैयासी उन्मार्गगामिता के निर्देशक रूप में ही इस काव्यरचना हुई थी। काव्यकार-इस काव्य के प्रणेता 'श्रीजिनवल्लभगणि' हैं। यह इस काव्य ३८वी कारिका से स्पष्ट हैविभ्राजिष्णुमगर्वस्मरमनासादं श्रुतोलवेन, सज्ञानामगिं जिनं वरवपुः श्रीन्द्रिकाभेश्वरम् । वन्दे वर्ण्यमनेकंधासुरनरैः शक्रेग चैनच्छिदं, दम्भारि विदुषां सदा सुवचसाऽनेकान्तरलप्रदम् ॥ ॥३८॥ " जिनवल्लभेन गणिनेदं चके" ये जिनवल्लभ गणि कौन थे ? कहां के थे ! किनके शिष्य थे ? इत्यादि विषयों का निर्णय बाह्य एवं अन्तरङ्ग प्रमाणों से किया जा सकता है। श्रीजिनपतिसूरि शिष्य श्रीजिनपालोपाध्यायप्रणीत' खरतरगच्छालवार युगप्रधानाचार्य गुर्वावली में और श्रीसुमतिगणिरचित गणधरसाईशतक की बृहवृत्ति में इस प्रकार उल्लेख मिलता है। जिनवल्लभ आसिका दुर्गनिवासी कूर्चपुरीय श्रीजिनेश्वराचार्य के शिष्य थे । सिद्धान्ताध्ययन के लिये पत्तन-स्थित आचार्यप्रवर श्रीअभयदेवसूरि के पास गये थे। आगमाध्ययनोपरान्त सुविहित आचरणाओं से प्रभावित होकर, गुरु जिनेश्वराचार्य की आज्ञा प्राप्त कर, चैत्यवास का त्याग कर उन्होंने अभयदेवाचार्य के पास उपसम्पदा प्रहण की। इन्हीं को अभयदेवाचार्य के विनेय प्रसन्नचन्द्राचार्य के शिष्य श्री देवभद्राचार्यने सं ११६७ चित्रकूट में अभयदेवाचार्य के पट्ट पर अभिषिक कर जिनवालभसूरि नाम उद्घोषित किया, और सं. ११६७ के ही कार्तिक कृष्णा द्वादशी के दिन उनका स्वर्गवास हुआ। इन तीन्हीं प्रसंगों की पुष्टि अन्य खरतरगच्छीय पट्टावलियों से भी होती हैं। 1. जिनवल्लम आसिका दुर्गनिवासी चैत्यवासी श्रीजिनेश्वराचार्य के शिष्य थे। For Private And Personal Use Only
SR No.020632
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshraj Upadhyay
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1953
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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