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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ सम्यक्त्वकौमुदी - I थे । श्रेणिक संपूर्ण कलाओंमें प्रवीण, और राजनीतिके अच्छे विद्वान थे । श्रेणिककी पट्टरानीका नाम चेलनी था । चेलिनी भी सब गुणों से भरपूर थी, जिनधर्मकी प्रभावना करनेवाली थी और परम सुन्दरी थी । राजगृहमें श्रेणिक इन्द्र जैसी शोभाको पाते थे । एक समय वनपाल वनमें घूम रहा था । उसने देखा कि जिन जीवोंका परस्परमें विरोध है, वे सब घोड़ा और भैंसा, चूहा और बिल्ली, साँप और नेवला, इकट्ठे हो रहे हैं। यह देख वनपाल अचम्भे में पड़ गया । वह विचारने लगा कि यह क्या है ? इन सबका इकट्ठा होना शुभ है या अशुभ ? इसी विचारसे वह घूमने लगा । इतनेहीमें इस विपुलाचल पर्वतके ऊपर अन्तिम तीर्थंकर श्रीवर्धमान भगवान्‌का समवसरण देखा । समवसरण देवों और उनके जय जय शब्दों द्वारा बहुत ही शोभाको धारण किये हुए था, दश दिशायें गूँज रही थीं। यह सब देख वनपाल प्रसन्न होकर विचारने लगा - मैंने जो एक ही स्थानमें इन परस्पर विरोधी जीवोंका समागम देखा, वह सब इन ही महापुरुषका माहात्म्य जान पड़ता है । देखो, यह हरिणी सिंहके बच्चे को अपना बालक समझ कर और यह गाय भेड़ियेके बच्चे को अपना बछड़ा जानकर प्रेम कर रही है उसे चाट रही है । प्रेमके वश हो बिल्ली हंसके बच्चेसे और नागिन मोरसे स्नेह कर रही है । यही नहीं किन्तु और भी परस्पर विरोधी जीव, For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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