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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पश्चिम दिशि शत्रुजय तीरथ। पूर्व सम्मेतशिखर गिरि॥ मोक्ष नगर ना दोय दरवाजा। भविक जीव रह्या संचरी॥ तुं ही नमुं, तु ही नमुं, नमुं सम्मेतशिखर गिरि... . श्री जिन हर्ष कृत स्तवन गिरिराज सम्मेतशिखर की तलहटी मधुवन कहलाती है। मधुवन नाम में जितनी मधुरता है, वैसी ही वहाँ शांत, सुरभिमय स्निग्धता सदैव व्याप्त रहती है। वन में उपवन और वातावरण की पवित्रता इस कलियुग में भी मधुवन में तपोवन की स्मृति उभार देती है। जिनेश्वर भगवान के लगभग २५ विशाल जिनालय इस छोटी-सी बस्ती को स्वर्णकलश और शुभ्र केतु मंडित देवपुरी को प्रतीत कराती है। आज की युद्ध पीड़ित मानवता दानवीर बर्बरता में पिसती है। सभ्यता एवं आचार विभ्रष्ट शिक्षा की बदौलत जो कल्मषः जागतिक वातावरण में प्रसारित है। मधुवन उससे सर्वथा अछूता है। वहाँ परम शांति तृप्ति एवं सभ्यता का साम्राज्य है। मर्त्यलोक का स्वर्ग है जीवन की मधुरिमा के परम स्त्रोत जिनवाणी की आधारशिला रूप तीर्थ सम्मेतशिखर की पदस्थली में विस्तीर्ण इस पूण्य बस्ती में आज भी लोग संत्रस्त जीवन से विलग होकर सहस्रों यात्री परिवार यहाँ आकर जीवन में सदिचत्त आनंद का आत्मानुभव करके स्वयं को धन्य मानते हैं। __ श्री सम्मेतशिखर के पहाड़ प्रचुर वनराशि से युक्त है। इसके सघन ढालों में अनेक प्रकार के वन्य पशु; शेर-चिते आदि हैं। प्राचीनकाल में इसके वनों में हाथी होने के उल्लेख शास्त्रों में मिलते हैं। विविध बहुमूल्य जड़ी-बूटियों एवं अलभ्य भेषज्य वनस्पतियों यह गिरिराज भण्डार कहा जाए तो अत्युक्ति नहीं सघन झाड़ियाँ और वन समृद्धि से परिपूर्ण होने के कारण राज्य शासन की कुटिल आँख सदैव इस तीर्थ भूमि पर रही है। वन्य उपज के उपरान्त शासक इस तीर्थ के यात्रियों से यात्रा कर भी लेते हैं। इसके बदले जैनों को उनसे यात्रा सुरक्षा का यात्किंचित लाभ मिलता रहा। लेकिन अंग्रेजी शासन में जब आवागमन के मार्ग सुरक्षित हो गए। क्षेत्रिय राजाओं की उनके अधिकार की रियासतों की सीमाएँ निर्धारित हो गई हैं और वे उसका उपयोग निजी आय के रूप में करने को समर्थ हुए। तब इस तीर्थ क्षेत्र के शासक पालगंज राजा द्वारा जैनों को विभिन्न भाँति की हरकतों से सामना ४० For Private And Personal
SR No.020622
Book TitleSammetshikhar Jain Maha Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1994
Total Pages71
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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