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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूरत के गोपीपुरा की मोटी पोल के श्री पार्श्वनाथ मंदिर में भी ईंट-चूने से श्री सम्मेतशिखर तीर्थ की प्रति कृति निर्मित है, वह भी अपने समय की एक सुन्दर कृति है। स्थापना तीर्थ की इस व्यापकता से स्पष्ट है कि श्री सम्मेतशिखर तीर्थराज की प्रसिद्धि सदैव रही है। वर्तमान में तो तीर्थ पट्टों के निर्माण की एक ऐसी परम्परा व्युत्पन्न हो उठी है कि कुछ ही मन्दिर इस तीर्थ पट्ट की स्थापना से बचे होंगे। एक अरब छिमंतर (चौहत्तर) करोड़ और गुणसाठ लाख उपवास सहित पौषध का लाभ श्री सम्मेतशिखर तीर्थ की यात्रा भाव पूर्वक करने का फल शास्त्रकारों ने बतलाया है। एक तो क्या, अनेक भवों के तप से भी पा सकना असंभव है। महान् तप लाभ, जो युगों एवं भवान्तरों के कर्म कल्मष को भस्मीभूत करने में सक्षम होता है। श्री सम्मेतशिखर तीर्थ की यात्रा कर इस अलभ्य लाभ को प्राप्त करने हेतु सुज्ञ पाठक निरन्तर प्रयत्नशील रहेंगे। मानव जीवन एवं श्रावक भव के कल्याणकारी श्री सम्मेतशिखर यात्रा लाभ प्राप्त कर धन्यता अनुभव करेंगे। वस्तुतः श्री सम्मेतशिखरजी तीर्थ भूमि भारत का सिरमौर एवं मानवीय सभ्यता के परम पुरस्कर्ता जिनेश्वरों की निर्वाण स्थली होने से जगत् मात्र का गौरव है। ___ भगवान ऋषभदेव ने अपने मुख से सम्मेतशिखर शाश्वत तीर्थ की यह विशद् महिमा फरमाते कहा कि वर्तमान चौवीसी के बीस तीर्थंकर इस पुण्य गिरिराज पर निर्वाण प्राप्त करेंगे और असंख्य आत्माएँ मोक्ष प्राप्त करेंगी। ऐसे वचन सुनकर श्री भरतेश्वर ने इस तीर्थ पर मन्दिर बनवाए थे। तदन्तर सभी जिनेश्वरों के शासन में इस तीर्थराज के उद्धार होते रहे, जो निम्न प्रकार से हैं:___ भगवान श्री अजीतनाथ के समय आचार सागर सूरि के उपदेश से चक्रवर्ती सगर के पौत्र राजा भगीरथ ने उद्धार करवाया था। ___ श्री संभवनाथजी के समय में गणधर श्री चारूक के उपदेश से हेमनगर के राजा हेमदत्त ने उद्धार करवाया था। श्री अभिनन्दन भगवान के समय में धातकी खण्ड के पुरणपुर नगर के राजा रत्नशेखर द्वारा उद्धार करवाया गया था। श्री सुमतीनाथ के शासन में पद्मनगर के राजा आनंद सेन ने इस तीर्थराज का उद्धार करवाया था। श्री प्रद्मप्रभु के शासन में बंग देश के प्रभाकर नगर के राजा सुप्रभ द्वारा उद्धार करवाया गया था। For Private And Personal
SR No.020622
Book TitleSammetshikhar Jain Maha Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1994
Total Pages71
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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