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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस श्लोक का भाव इतना सुन्दर और रुचिकर है जो हृदय में आते ही संसारका अाताप कहां जाता है पता नहीं लगता। आप जहां तक हो अब इस समय शारीरिक अवस्था की ओर दृष्टि न देकर निजात्मा की ओर लक्ष्य देकर उसीके स्वास्थ्य की औषधिका प्रयत्न करना। शरीर परद्रव्य है, उसकी कोई भी अवस्था हो उसका ज्ञाता दृष्टा ही रहना। सो ही समयसार में कहा है। - गाथा - "को णाम भणिज बुहो परदव्वं मम इमं हवदि दव्वं ॥ अप्पाणमप्पणे परिगहंतु णियदं वियाणंतो॥ भावार्थ-यह परद्रव्य मेरा है ऐसा ज्ञानी पंडित नहीं कह सकता। क्योंकि ज्ञानी जीव तो आत्मा को ही स्वकीय परिग्रह मानता या समझता है । यद्यपि विजातीयदो द्रव्यों से मनुष्य पर्याय की उत्पत्ति हुई है किन्तु विजातीय २ दो द्रव्य मिलकर सुधाहरिद्रावत् एकरूप नहीं परिणमे हैं। वहां तो वर्णगुण दोनों का एकरूप परिणमना कोई आपत्ति जनक नहीं है किन्तु यहां पर एक चेतन और अन्य For Private and Personal Use Only
SR No.020620
Book TitleSamadhi Maran Patra Punj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Nayak
PublisherKasturchand Nayak
Publication Year
Total Pages63
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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