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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३७ ) " कुछ समयके बाद कलह शान्त होनेपर हीर विजयसूरिजोने, धर्मसागर को अपने गच्छमें मिला लिया। परन्तु यतियोंके साथ कलह करना इसने न छोड़ा । हीर विजय सूरिजीने भी इसका पक्ष ग्रहण किया। इस पक्षपातको देखकर कई यतियोंने इनके संघको परित्याग कर किसी अन्य सरिके आश्रयमें दूसरा संघ स्थापित किया और पूज्य हुए। तबसे देव सरिसे आनन्द सरितपा शाखा हुई। कुछ दिनोंके बाद सागरों ने हीर विजय सूरिके गणको भी परित्याग कर दिया। तबसे देव सरितपा ऋषिमत तपा और सांगर तपा नामक भिन्न २ शाखाएं हो गई। सागरिया शाखा तेरह प्रकार की बताई गई है। परन्तु वे भी पारस्परिक विरोध के कारण संगत युक्त नहीं हैं। देव सूरिजी ने स्त्री को दीक्षा धारण करना शास्त्रसंगत कहा है। परन्तु सागरियों ने उसका विरोध किया है। इस प्रकार सर्वदा उत्सत्र अमत-वस्तु-निरूपण तथा गुरू-निन्दा करने के कारण सागरिया शाखा अच्छी नहीं कही जाती। विजय शाखोत्पन्न यह विलक्षण सांगरिया शाखा स्व-मूल-खण्डन कर आत्मोत्कर्ष करना चाहती है। जिस शाखा का न कोई देश है न कोल न शुद्ध परम्परा है न धर्म-युत आवार विचार । इस अवस्था में यह शाखा किस प्रकार मान (आदर ) पाने को अधिकारिणी हो सकती है। इस शाखा का प्रवर्तक आत्मीय परकीय यतियोंका निन्दक धर्म सागर था। अत: उसधर्म निन्दक ने स्वकृत पट्टावलिमें परस्पर निन्दा कर अपना उत्कर्ष बढ़ाया है। श्री राधन पुरमें वादीन्द्र कुम्भ चन्द्र For Private And Personal Use Only
SR No.020617
Book TitleSagarotpatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamal Maharaj
PublisherNaubatrai Badaliya
Publication Year1926
Total Pages44
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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