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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३४ ) - किसी समय सागरिक शाखावालोंके प्रपञ्चसे यतियों के साथ महान् कलह उपथित हुआ। इसका प्रभाव अपने यतियों पर भी पड़ा। तत्पश्चात् यवन नरेशने इन्हें सृखलासे उंटकी पुच्छ में वांधकर इनका मदचर किया और सोलह हजार रुपया दण्ड स्वरूप प्राप्त करनेपर उन्हें मुक्त किया। तभोसे ऊंटघसेड़िया नामक इनकी शाखा हुई। इसके बाद लुकासणी एवं पिताम्बरा नामक दो शाखायें उपस्थित हुई जिनका अध्यक्ष विजय सरिजीका शिष्य हुआ। इसकी कथा इस प्रकार बताई जाती है: सागरिकों के भयसे छिपकर ये लोग प्रायः रातमें यात्रा कि या करते थे।किसी समय वे सभी राजपुरमें एकत्रित हुए और परस्पर कलह शुरू हुआ। तत्पाश्वात्. सागरिको ने राजपुरके कर्म चारियोंके निकट फरियाद की । इससे भयभीत हो कुछ लागोंने स्व-भक्तोंके घरोंमें शरण पाई अर्थात् छिप गए और कुछ लोग पिताम्वर वस्त्र धारण कर छिपे २ गत्रिमें ही भाग खड़े हुए। कलह बीतने पर श्री विजयदेवजोके समझानेसे भो इन्होंने अपने पीत वस्त्रोंका त्याग नहीं किया। अतएव, इनकी शाखायें लुकासणी तथा पिताम्बरा नामसे पुकारी गई। ये, खर-मूत्रादि की छीटों से तिरस्कृत कर अपने गच्छसे अलग कर दिए गए। इससे क्र द्ध हो वे इस गक्छ को निन्दा करने लगे । उनका कहना था कि हम लोग महाव्रतधारो साधु हैं । सर्वदो ही दोष हीन कार्य करनेसे त्यागी और अपरिग्रही हैं। ये सर्वदा द्रव्य-संग्रही For Private And Personal Use Only
SR No.020617
Book TitleSagarotpatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamal Maharaj
PublisherNaubatrai Badaliya
Publication Year1926
Total Pages44
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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