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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३२) प्रवाल गच्छसे सभी शिक्षा प्राप्त कर उन्हीं की मन्दा करनेसे वे ससारमैं होना चारी और अधर्मी हुए। इतना होने पर भी अपलोगों ने अपनी पट्टावाल में उनकी प्रशंसा (स्तुति कर उन्हें पूजनीय धनाया है। इस बातको आप लोगों ने भी स्वीकार किया है। परन्तु, निन्दा और प्रशंसा दोनो किस प्रकार सम्भव हो सकता है ? अतः सिद्ध हुमा कि जगच्चन्द्र जी इनके शिष्य न थे। गुरुको ग्रहण में प्रशंसा त्याग हो सकता है कि अथच, निन्दा किया हो तो इस प्रकारके गुरु निन्दको को कौन पण्डित यति मानने के लिए बाध्य हो सकता है ? के हुए असत्य स्तुति कर्ता और आप असत्य वादी। इस अवस्थामें प्रोपलोगों में इनकी पूजा किस तरह प्रसिद्ध हुई। चैत्रवासी कोई दूसरा ही होगा जिससे काल्पत गुरू परम्परा बनाई गई होगी। क्योंकि इससे दूसरे की मिन्दा स्तुति सम्भवित होती है। मांझण श्रेष्टकी बनाई हुई शत्रु जया गिरिपर बारह योजन लम्बी सोना चांदीकी बनी हुई एक ध्वजा है। वहाँ महात्मा देवेन्द्र सरि यतिजीका आगमन और व्याख्यान होगा। इसी प्रकार प्रहलादन स्थानपर यमणा षोड़शिका रात्रिका ब्रत हुआ, इत्यादि ये समी बातें कपोल कल्पित सिद्ध होती है। तपस्या करनेसे (प्रसन्नहो) सम्वत् १२८५ वर्षमें विद्यमान राजाने सपा नामक उपाधि प्रदान की है, मुनि सुन्दरसरि. द्वारा उपरोक कथाका लिखा जाना त्याति सभी बातें कल्पित ही सिद्ध होती है। कारण इसका यह For Private And Personal Use Only
SR No.020617
Book TitleSagarotpatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamal Maharaj
PublisherNaubatrai Badaliya
Publication Year1926
Total Pages44
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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