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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २५ ) यह भी एक विधवाका लड़का था। अतः सज्जन द्वन्द उससे व्यवहार नहीं करते थे। जगत्चन्द्रने अपने अनुकूल वस्तु पालको समझ उसे बसीभूत किया और उसके दिए हुए इन्योंसे औरों को भी वसीभूत करके उसने एक सङ्घकी स्थापना की। तभीसे वणिकोंमें दशा और बोला नामक दो जातियों की स्थापना हुई । बणिक जातियों में प्रति बिरोध जारो हुआ । जनताने जगत्चन्द्रको वर्ण शंकर की पदवी दी परन्तु उसने काकवत् स्वभाव के कारण तो भी अपने दुराग्रहका परिसाग न किया। किसो समय चित्रबाल गच्छीय क्रिया कुशल श्रुततम्पन्न उपाध्याय देव भद्रजीका वहां पदार्पण हुआ। बस्तुपाल की अनुमतिसे, अपना कलङ्क मिटाने के लिये जगत्चन्द्रजीने इनसे उप सम्पद अर्थात् दीक्षा ले इनको शिष्यता स्वीकार करली । अर्थात् इनका शिष्य हो गया। मुनि सुन्दर मरिने गुरुवलीमें कहा है कि जगतचन्द्रने देवभद्रसे उपसम्पदा दीक्षा ली थी। मुनि सुन्दर सूरिका पाठ किसी समय चैत्र पुरमें महावीरजोको प्रतिष्ठा करनेवाले चन्द्रगच्छमें धनेश्वर सूरि हुए। तभी से चैत्र बाल गच्छ हुआ। कुछ दिनोंके बाद गणी श्री भुवनचन्दजी हुए। उनसे शुद्ध For Private And Personal Use Only
SR No.020617
Book TitleSagarotpatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamal Maharaj
PublisherNaubatrai Badaliya
Publication Year1926
Total Pages44
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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