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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२१) दिया कि जब तक वह अथवा उसका शिष्य सन्मार्ग की निन्दा करेगा और उन्मार्ग का प्रवर्तन तथा सत्सङ्गका खण्डन करेगा तब तक उसके मतकी वृद्धि होगी। इस प्रकार वर प्रदान कर भगवतो देवो लोप (अन्तर्ध्यान ) हो गई । श्री जगत चन्द्र इस प्रकार चण्डाली मतमें प्रवृत्त हो अधिकतर प्रसिद्ध हो गए। तत्पश्चात् जगतचन्द्रनी श्रीचाण्डाली देवीके प्रभावसे स्तम्भन क्रियो द्वारा अनेकों मूों को अपने पक्षमें सम्मिलित करके मूरि वन कर किसी समय (गुजरात) देशमें अपने शिष्यों के साथ गए। इन्होंने उक्तसूत्र का उच्चारण कर अपने मत की वृद्धिके लिए प्रयत्न किया। गुजरातवासी राम चन्द्रादि संघोंने श्री जगत चन्द्रजा को सभा के मध्यमें वादविवाद करने के लिए आह्वान किया। परन्तु इन्होंने सभा में पदार्पणा न किया। उस दुर्बुद्वि ने संघ की भी शिक्षा ग्रहण न की और मार खाने पर भी उसने अपना दुराग्रह न छोड़ा । संघसे वहिस्कृत हो जानेको धपकी वाली बात सुन कर वह बहुत भयभीत हुआ। अतएव स्वतुल्य गुरुद्रोही श्री वाल चन्द्र को उसी संघ के किसो यतिको सौंपकर उसने शोघ्रतासे अपनो राह ली अर्थात् रात्रिकोही भाग गया। जनताके समक्ष उसने घोषित किया कि ऊंटपर चढ़कर वह अतिशीघ्रता पूर्वक पत्तनपुर से स्तम्भन पुरमें पाया है। जन For Private And Personal Use Only
SR No.020617
Book TitleSagarotpatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuryamal Maharaj
PublisherNaubatrai Badaliya
Publication Year1926
Total Pages44
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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