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उपसंहार |
माननीय महोदयो
बहुत दिनोंसे जैन समाजमें तपागच्छीय विषयको ले कर नाना प्रकारका वादविवाद फैला हुआ है । परन्तु शोकका विषय है कि अद्यावधि इस समाजके किसीभी माननीय सज्जनने इस वादविवादको इति श्री करनेकी प्राणपण से चेष्टा नहीं की है। परन्तु, विवादको और भो प्रज्वलित करनाही अपना पाण्डित्य तथा वीरत्व समझा है। इस प्रकार अग्निमें घृताहुति प्रदान करनेवाली कहावत चरितार्थ कर शान्ति स्थापित जैन समाज में पुनः उत्पात खड़ा करके जनतामें विद्रोह फैलाने की पूर्ण चेष्टा की गई हैं। समझमें नहीं आता कि जैन समाजको विद्रोहावस्था में देख कर इन रजनीके लालों को क्या आनन्द प्राप्त होता है ?
चार शताब्दि पूर्ण धर्म सागर नामक किसी एक अन्य व्यक्तिने खण्डनात्मक साहित्य प्रकाशित करके शान्ति स्थापित जैन समाज में प्रज्वलित विरोधाग्नि फैलाने की पूर्ण चेष्टा की थी। परन्तु उस समय किसी सुयोग्य व्यक्तिने इस दुराग्रही धर्म सागरके खण्डनात्मक साहित्यको जल शरण कराया और समाज में पुनः शान्ति स्थापित की। खण्डनात्मक साहित्य प्रकाशित करनेके प्रायश्चित स्वरुप उस ( धर्मसागरको) तपागच्छसे बहिष्कृत भी कर दिया गया ।
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