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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra चाला ( चाला उदा० संज्ञा, पु० [हिं० चाल ] गोना, नववधू का पहले पहल ससुराल या मायके जाना । चाले की चूदरि चारु कसूभी सुगन्ध सनी दमकें तन गोरें । चावक संज्ञा पु० [फा० चायुक] भावुक, कोड़ा सोंटा । - ग्वाल, · - - उदा० देव मनोज मनो जू चलायो सोन सरोज को चावक । चावक चोट कटाक्षन की तन जाके लगी मन जानत सोई । -- बोधा चावरी संज्ञा स्त्री० [हिं० चावड़ी] पड़ाव, ठहरने का स्थान । उदा० किधौं चंद बदनी को चिबुक बिराजमान, किधौं चारु चावरी बदन चंद्रभूप ! - श्रालम --- www.kobatirth.org चितौनि मैं - देव - - -केशव चाह- -संज्ञा० स्त्री० [०] खबर, समाचार । उदा० हरि प्रागम की अँगना सुनि चाह सँवारत अंग हुलास हो । - आलम श्रावत - -पद्माकर 7 ननद चाह सुनि वलन की बरजति क्यों न सु कंत । बन बिरहीन को बैरी बधिक बसन्त । चाहनसंज्ञा स्त्री० [देश०] चितवन, दृष्टि । उदा० एरी चलि 'नागरी' तू सींचि सुधा चाहनि सौं, खिनि के घायन की आँखें ही उपाय हैं । -नागरीदास चाहना- क्रि० प्र० [बु०] देखना | उदा० चाहे चकचीं त्रितु रबि की सी कांति है । -श्रालम -- - चाहने वि० [हिं० चाहिए] उचित, ठीक उदा० चित कोन्हों कठोर कहा इतनो अरी तोहि नहीं यह चाहने हैं । -ठाकुर चाहि- -अव्य० [सं० चैव] बढ़कर, अपेक्षाकृत, अधिक । उदा० ऐसेई चाहि चवाई चहूँक हैं एक की बात --द्विजदेव हजार बखानती । चिडार संज्ञा, पु० [सं० पान्हाल] चाण्डाल, नीच व्यक्ति । उदा० कहन सुनन कों द्विज निरधारै । करम करें जैसे चिडारे । -जसवन्त सिंह चिततूट - संज्ञा, पु० [सं० चित्त + त्रुटित = भंग ] चित्तभंग, उचाट, मतिभ्रम, ध्यान न लगाना । उदा० सोक भरे रोवत, रिसात, धीर धर लेत, घनी घिन मानत, चकित चिततूट सों । --देव --- ७७ ) चिल्लह मंडित ] चितारना -- क्रि० सं० [प्रा० चित्तल मंडित करना, भूषित करना, लगाना । उदा० धौरी ढार ढौरी लै बुलाय बोलि सौंपि देत, काजर कुरंग नैनी चोपनि चितारई । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - -घनानन्द चित्रभानु संज्ञा, पु० [सं०] १. अग्नि, पावक २. सूर्य । उदा० उदित पदुमराग रूचिर विचित्र रच्यो, चित्र गृह करतु विचित्र चित्रभानु तर । चिरना- क्रि० श्रा० [हिं० चिढ़ना ] चिढ़ना, नाराज होना । —देव उदा० जानि न परत धौं कियो है कहा रघुनाथ कीन्हे हूँ जतन घरघेरी न घिरति है । लोगन के मुख जऊ सुनति है निन्दा तऊ मन बच कर्म के केहूँ न चिरति है । - —रघुनाथ चिरम- -संज्ञा० स्त्री० [देश०] घुघुची, गु ंजा । उदा० पाय तरुनि कुच उच्च पद चिरम ठग्यो सब गाँव । - बिहारी चिरवादारनि-संज्ञा, स्त्री० [?] साइसिन, घोड़े की सेवा करने वाली । ――― उदा० चौली मांहि चुरावई, चिरवादारनि चित्त । फेरत वाके गात पर, काम खरहरा नित्त । - रहीम चिलक - संज्ञा, स्त्री० [हिं० चिलकन] चमक, पीड़ा । उदा० चिलक चिकनई चटक स्यौं लफति सटक लौं आय । - बिहारी चिलता --संज्ञा, पु० [चिलतः ] एक प्रकार का कवच । उदा० काटत चिलता हैं इमि प्रसि बाहि सराहें बीर बड़े । -संज्ञा, पु० [फा० चिलता ] एक प्रकार -पद्माकर - काटत चिलता हैं इमि श्रसि सराहैं बीर बड़े । चिलतह का कवच । -- उदा० आयुध और अनेक और चिलतह बहु श्रंगा -सूदन बाह्रै तिनहि - पद्माकर For Private and Personal Use Only -- चिल्लह-संज्ञा पु० [हिं० चिल्ला] १. पगड़ी का छोर जिसमें कलाबत्तू आदि का काम बना रहता है । २. धनुष की डोर [देश०] प्रत्यंचां ।
SR No.020608
Book TitleRitikavya Shabdakosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorilal
PublisherSmruti Prakashan
Publication Year1976
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size21 MB
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