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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऊर ( ३२ ) एनमद उदा० अधिरात भई हरि आये नहीं हमें ऊमर | ले चले उचारि एक बार ही पहारन कौं, को सहिया करि गे । --ठाकुर बीर रस फूलि ऊलि ऊपर गगन कौं । ऊर---वि० [ ? ] कुरस, नीरस, स्वादहीन २. -सेनापति न्यून [प्रा० ऊरप] । ऊलर-वि० [ ? ] प्रकम्पित, हिलती-डुलती। उदा० सरस परस के बिलास जैड़ जाने कहा, नीरस निगोड़ो दिन भरै भखि ऊर सों। उदा० ऊलर अमारी गंग भारी बंब धीं धौं होत, धार के भिखारी के हजारी कोऊ जात है । -घनानन्द -गंग ऊरी-अव्य० [सं० अवर] दूर, परे, उरे। उदा० नेक न नीचिये बैठति नागरी, जोबन हाथ ऊसर- वि० [प्रा० ऊसल, सं० उत् + लस्] १. लिये फिरै ऊरी। --गंग उल्लसित, पुलकित, प्रसन्न २. क्षार-भूमि, जिसमें बीज नहीं पैदा होता। ऊलना---क्रि० स० [सं० शूल, हि० हल]। । १. भाले आदि की नोक गड़ाना या चुभाना उदा० ले हरमूसर ऊसर ह्र कहूँ पायो तहाँ बनि २. झूमना, प्रसन्न होना, उछलना, कूदना । कै बलदाऊ। --पद्माकर उदा० जानो सुधा के भरे कलसा खड़े सूर से ये ऊहर--संज्ञा, पु० [ प्रा० उहर ] उपगृह, छोटा उर ऊलि रहे हैं। -गंग घर । २. वृथारी कथा वाचिकै, नाचि ऊले । नहीं देव कोई, सबे झूठ झूले ॥ उदा० ऊहर सब कूहर भई बनितन लगी बलाय । -देव -बोधा ऍन-संज्ञा, पु० [सं० अयन] गृह, घर । । उदा० नख-पद-पदवी को पावै पदु द्रोपदी न, उदा० एँन ऍन ते हौं प्राजु गोरस के बेचिबे की । एको बिसौ उरबसी उर में न प्रानिबी। निकसी अकेली अति सुमति रली रली। -केशव -सोमनाथ एनमद संज्ञा, स्त्री० [सं० एण + मद] मृगमद, एकचक-संज्ञा, पु० [स] सूर्य, रवि ।। उदा० श्रुति ताटंक सहित देखियै । एकचक्र रथ कस्तूरी। सो लेखिये । -केशव उदा० यों होत है जाहिरे तो-हिये स्याम । एकौबिसौ-क्रि० वि० [हिं० एक बिस्वा] थोड़ा ज्यों स्वर्नसीसी भर्यो एनमद बाम ॥ भी, किंचित मात्र । --- दास For Private and Personal Use Only
SR No.020608
Book TitleRitikavya Shabdakosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorilal
PublisherSmruti Prakashan
Publication Year1976
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size21 MB
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