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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उसारनि ( ३० ) ऊखिल २. द्विज गऊ पालहि, रिपु उसालहिं सस्त्र उसीती-वि० [प्रा० उस्सिय] १. उन्नत, ऊँची धावहि तन सहै । -पद्माकर २. गर्वित, उद्धत [प्रा० ऊसित्त]। ३. गोल ग्रीव की सोभा ऊपर कंबू अनेक उदा० १. सूती सी नाक उसीती सी भौंह सुधारे उसारे । -सोमनाथ से नैन सुधारस पीजै । उसारनि--संज्ञा, पु० [हिं० उसारना ] उगला -केसव केसवराय हुआ पदार्थ । उसीस-संज्ञा, पु० [सं० उत् + शीर्ष ] १. उदा० एक पियति चरणोदकनि, एक उसारनि सिरहाना २. तकिया । खाति । -केशवदास उदा० ताहि तू बताइ जोई बाँह दै उसीसैं सोई. उसालना-क्रि० स० [सं० उत् + सारण ] ऐसे अनुबादन के अनुवा घनेरे हैं । -गंग उखाड़ना, हटाना ।। उसुमासन-संज्ञा, पु० [सं० उद्बासन] खुचड़, उदा० दीनन कौ पालै गाढ़े गढनि उसाले तब - दु:ख, घर से निकालने का कष्ट, परेशानी । सज्जै करबालै ऐसो कौन बरबंड है। उदा० देवर की त्रासनि कलेवर कॅपत है, न -सोमनाथ सासु-उसुप्रासनि उसास लै सकति हौं । उसासना-क्रि० स० [हिं० उसास] उभाड़ना, - सांस को बढ़ाना । उहँडे-संज्ञा, स्त्री० [बुं०] सेंध, नकब । उदा० फिरि सुधि दै, सुधि धाइ प्यो, इहिं । उदा० कब काहु की चोरी कीनी कब उहँडे मुंह निरदई निरास । नई नई बहरयौ, दई । पाये। ---बक्सी हंसराज दई उसासि उसास । -बिहारी उहारी लगना-क्रि० प्र० [ देश० ] वाणी की उसीजना-क्रि० अ० [हिं० उसनना], उबलना, अनुध्वनि करना । गरम होना । उदा० कोइल अलग डारि बोलति उहारी लगे, उदा० अन्तर-आँच उसास तचै अति, अंग उसीजै डहडही जोन्ह जी में दाह सी लगति है। उदेग की आवस । --घनानन्द --गंग -दास उदा० 'द्विजदेव' ज ऊक औ बीक हिये मैं, गुपाल के फंद भयोई चहैं । -द्विजदेव ऊकना-क्रि० स० [ हिं० ऊक ] जलाना, दुख देना। उदा० कवि 'ग्वाल' डरा बछरा के छटै. छरा टूट परो क्यों ऊकती हैं। ऊँटकटारा-संज्ञा, पू० [सं० उष्ट्रकंट ] एक प्रकार की कंटीली झाड़ी जिसे ऊँट बड़े चाव से । खाते हैं। उदा० खारक-दाख रुवाइ मरौ कोउ ऊँटहि ऊँटकटारोई भावै । -केशव कक-संज्ञा, स्त्री० [सं०=उल्का ] लुगाठ, जलता हुमा अंगारा । २. टूटता तारा । उदा० १. ऊक भई देह बरि चक है न खेह भई. हुक बढ़ी पैन बिबि टूक भई छतिया । –पालम २. तीनिहू लोक नचावति ऊक मैं मंत्र के सूत अभूत गती है। -देव ऊकबीक-संज्ञा, पु० [सं० उद्विग्न] उद्विग्नता, बेचैनी, घबराहट । -ग्वाल ऊखिल--संज्ञा, पु० [ब्रज०] किरकिरी २. पराया, अपरिचित, अजनबी । उदा० १. ऊखिल ज्यौं खरके पुतरीन मैं, सूल की मूल सलाक भई है । --घनानन्द २. भोर लौं अखिल भीर अथाइन द्वार न कोक किंवार भिरैया । --देव For Private and Personal Use Only
SR No.020608
Book TitleRitikavya Shabdakosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorilal
PublisherSmruti Prakashan
Publication Year1976
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size21 MB
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