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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिरचौहैं ( १७२ ) बिसाति बास । बिहित करत सु न हित समुझि | उदा० वा मनमोहन को वह मोहन सोहन सुन्दर सिसुवत जे हरिदास । - पद्माकर रूप बिरोधो । -देव बिरचौहैं-वि० [सं० विरचन] १. विशेष प्रेम- बिरोषि क्रि० वि० [सं० वि+रोष] विशेष मय, अनुरागमय २. उदास, खिन्न । रोष पूर्वक । उदा० १. बारिज बदनि बिरचौहैं बैन बानी / उदा० अालम देह सदेह वियोग बिरोषि दल सुख वाकी, बिपनु बचन सुनि विरचि रहति सम्पति लूटै। -पालम -आलम बिर्यो-सर्व० [सं० विरला] विरला, कोई । २. घोर घनै गरज घन ये ससिनाथ हिये उदा० सुपूत के होत सुपूत बिर्यो इमि होइ बिरचावन लागे । __ ---- सोमनाथ सुपूत सपूत के ऐसौ । -केशव बिरज--बि० [सं० विरज] धूलरहित, स्वच्छ बिलेस--पति- संज्ञा, पु० [सं० बिल+ईशसाफ । सर्प+पति - शेषनाग] शेषनाग । उदा० कंस महाराज को रजकु, राजमारग मैं । उदा० सूरज बिलानो, बिलबिलानो बिलेस पति अम्बर बिरज लीने रंग रंग गहिरे । कूरम किलबिलानो कूरम के गौन ते । - -देव -गंग बिरतंतना-क्रि० अ० [हिं० बिरमना] १. बिर- बिलोक-संज्ञा, पु० [सं० द्विलोक] दूसरा लोक, मना, ठहरना, रुकना २. वृत्तांत [संज्ञा, पु.] ।। सुरलोक । उदा० घर कंत नहीं बिरतंत भटू अबकै धौं । उदा० कौन गनै यहि लोक तरीन बिलोक___बसन्त कहा करिहै । ---बोधा बिलोकि जहाजन बोरै। -केशव बिरत्थ -वि० [सं० व्यथ] व्यर्थ, बेकार । ब्रह्मरंध्र फोरि जीव यों मिल्यो बिलोक । उदा० पै ए दोऊ बात निह पाहि बिरत्थ हैं। -केशव ___ नव जोबन गुन गात, प्रतिपल मनमथ | बिसंकुर - संज्ञा, पु० [?] खंजन पक्षी। बाढ़ई । -सोमनाथ उदा० बिसद बिसंक ह्रबिसंकुर चरत । -देव बिरम-संज्ञा, पु० [सं० विलंब] विलंब, देर । बिषधर-संज्ञा०, पु० [सं०.विषधर] १. शंकर उदा० हा हा हा फिर हा हा सुखनिधि बिरम न । २. सर्प। जात सहयो। - घनानन्द Jउदा० १. विषधर बंधु हैं, अनाथिनि को प्रतिबंधु बिराव--संज्ञा, पु० [सं० बिराव] शब्द, बोली, । विष को विशेष बंधु हिये हहरत हैं। कलरव । --केशव उदा० कान परी कोकिला की काकलिनु कलित, बिसनी-संज्ञा, स्त्री० [?] कमलिनी। कलापिन की कूके कल कोपल बिराव की । उदा० क्यों जिये कैसी करौं बहरयी विष सी -देव बिसनी बिसवासिनी फूली। -केशव मोर करै सोर, गान कोकिल विराब के। । बिसबल्लरी-संज्ञा, स्त्री० [सं० विसवल्सरी] --सेनापति कमल की लता। बिराह-वि० [फा० बे+राह कायदा] उदा० कर कंजनि पल्लवनि भुज बिसबल्लरी बेकायदा, बेढंगी, अंडबंड। सुपास । रत्न तारका कुसुम सर नख रुचि उदा० तेगबरदार स्याह पंखाबरदार स्याह केसवदास । -केशव निखिल नकीब स्याह बोलत बिराह को । बिसबीस-वि० [हिं० बीसोबिस्वा] बीसोबिस्वा, --भूषण ___ सम्पूर्ण । बिरोचन-संज्ञा, पु० [सं० विरोचन] १. सूर्य, उदा. 'दास' लला की निछावरि बोलि जु मांगे २. अग्नि , ३. प्रकाश । सु पाइ रहे बिसबीसनि ।। -दास उदा. लोचन बिलोल यो बिरोचन उए हैं कौल बिसरु-संज्ञा, पु० [सं० बिशर] बध, कत्ल । अठिलात बोलि अंकमालिका लगावहीं ।। उदा०करि बह बिसरु सत्रु कै जाय। जुद्ध काल -भूषण भागे महराय । -केशव बिरोधना-क्रि० सं० [सं० वि+रोधन] विशेष | बिसाति-- संज्ञा, स्त्री० [अ० बिसात] १. पूंजी, रूप से अटकाना, फसाना, रोकना। । धन, वित्त २. आधार, वह वस्त्र जिस पर For Private and Personal Use Only
SR No.020608
Book TitleRitikavya Shabdakosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorilal
PublisherSmruti Prakashan
Publication Year1976
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size21 MB
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