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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बहिक्रम ( १६७ ) बागर बहिक्रम-संज्ञा,. पु० [सं० वयः संधि] वयः । बांक-संज्ञा, स्त्री० [सं० बंक] १. हाथों में पहनने संधि बाल्यावस्था और युवावस्था का मिलन : | का एक आभूषण २. पैरों का एक प्राभूषण उदा० बाल बहिक्रम ख्याल हुत्तो, नँदलान प्रसंग जो चाँदी का बना होता है। ३. हाथ की न जानिय तौ। गंग चौड़ी चूड़ी। बहीर-संज्ञा, स्त्री० [हिं० भीड़]१. भीड़, जन- उहा० १. सेज गिरी जेहरी अंगूठी देहरी के द्वार समूह २. सेना की सामग्री ३. फौज का लवाज मारग में बाजूबंद बाँक फुलवारी में । मु० बहीर का शशा होना-भटकना, -नंदराम परेशान होना। बांधनी पौरि-संज्ञा, स्त्री० [व] वह स्थान उदा० १. मोतीराम सँवारों सनेही सो संभारों जहाँ गाएँ बांधी जाती हैं। ना तो मन मेरो माई री बहीर को शशा उदा० कवि ग्वाल चराइ लै आवनी ह्यां, फिर भयो । -मोतीराम बांधनी पौरि सुहावनी है, -ग्वाल कवि २.कब प्रायही औसर जानि सूजान बहीर बांधनू-संज्ञा, पु० [हिं० बांधना] कपड़े की लौं बैस तो जाति लदी। -घनानन्द रँगाई में डोरों का वह बँधन जिसे रँगरेज ३. ऐसे रघुबीर छीर नीर के विवेक कवि चुनरी आदि वस्त्रों के रंगने में बीच बीच में भीर की बहीर को समय के निकारि हौं । । बाँधते हैं। -हनुमान । उदा० आतुर हजिये ना बलि जाउँ, तिहारे लिये बह्नि-जंत्र-संज्ञा, पु० सं०वह्नि ह्नयंत्र] प्रातश हरि बाँधन बाँध । -बेनी प्रवीन बाजी, पटाका । कहै पद्माकर त्यों बांधन बसनवारी उदा० मनो मोहनी के मंत्र छूटै बह वह्नि जंत्र, वा व्रज बसनवारी ह्यौ हरनहारो है। देखि री दिखाऊँ तोहि दूलह किसोरी को। -पदमाकर --ब्रजनिधि बाहक--संज्ञा, पु० [प्रा० बाप] ? पुत्र, लड़का बहुधा-संज्ञा, स्त्री० [सं० बहुधा] १. वसुधा, उदा० नाउँ न गांउ सुन्यौ कबहूँ वह को है कहां पृथ्वी २. अनेक प्रकार से [सं० बहु+धा को है कीन को बांहक। -तोष प्रकार] । बाइगी-संज्ञा, पु० [?] गारुड़ी, विष को उदा. १. देव यही मन पावत है सविलास वधू उतारने वाला। बिधि है बहुधा की । -देव उदा० कहै कवि गंग बोर बिरही न बचै कोऊ, २. आनंद भो गहिरो समूदै कूमदावलि ब्याधि व्यथा बैद हरै बिस हरै बाइगी। तारन को बहुधा को । -~-भूषण - गंग बहुत पच्छि-संज्ञा, पु० [सं० बहुल पक्ष] अँधेरा बाइल संज्ञा, पु० [सं० वातुल] वह व्यक्ति पाख । जिसे बाई चढ़ी हो, पागल, मतवाला । उदा० तप सिद्धि मास अरु बहुत पच्छि । उदा० बार बार बाइल सी धूमति घरिकते । ऋतु शिशिर द्वादशी तिथि सुरच्छि ।। --आलम -जोधराज | बाग-संज्ञा, पु० [अ] १. कागज की फुलवारी बहेवा वि) [देश॰] बदमाश, चपल, उद्दण्ड । २. उद्यान बगीचा, ३. लगाम ४. वस्त्र । उदा० १. जरी ऊजरी बाल बहेवा सों मेवा उदा० १. देव दिखैयन दाग बने रहे, बाग बने के मोल बढ़ावति भूठे। --देव ते बरोठेई लूटे । -देव २. बारे के बहेवा कान्ह कारे अतिरंग के बागना-क्रि० प्र० [सं० बका घूमना फिरना । कारी-कारी बातें सुनि होत है अजूब री। उदा० आलम विकल बागी मैन की ठगोरी लागी --गोपीनाथ नैननि की ढौरी लागी ताते तन छीनो है। बहोटिन-संज्ञा, स्त्री. [सं० वधूटी] बीरवधूटी, प्रालय लाल रंग का एक कीड़ा जो बरसात में दिखाई बागर-संज्ञा, पु० [देश॰] जाल । पड़ता है। उदा० एक बार उमग्यो सुहाग अनुराग राग, उदा०-तैसेई उलहि आये अंकुर हरित पीत भाग ब्रज वासिन को जैसे मृग बागरे । देव कहै विविध बहोटिन सुहाये हैं। -देव । -देव For Private and Personal Use Only
SR No.020608
Book TitleRitikavya Shabdakosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorilal
PublisherSmruti Prakashan
Publication Year1976
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size21 MB
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