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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पहाऊँ ( १५० ) पाइमाल पहाऊँ--संज्ञा, स्त्री० [देश॰] सुबह, प्रभात । पाँइचे संज्ञा, पु० [फा० पायचा] पायजामे की उदा० जा लगि लाँच लुगाइनि दै दिन नाच नचा- मोहरी । वत सांझ पहाऊँ । --केशव उदा० घेरदार पांइचे, इजार कीमखापी ताप, पहासरे-संज्ञा, पु० [हिं० पह, पौ] पौ, चांदनी पैन्हि पीत कुरती रती को रूप लीपे हैं । उदा० चन्द के पहासरे में माँगन मैं ठाढ़ी मई, -ग्वाल पाली तेरी-जोति किधी चाँदनी बिछाई है। पांउरी-संज्ञा, पु० [हिं० पाँव+री] १. जूता -गंग २. बैठक, दालान (हिं० पौरि)। पहरावनि--संज्ञा, स्त्री० [हिं० पहनना] सिरो- उदा० सीरक अधिक चारि ओर अवनी रहै न पाव, खिलअत । पाँउरीन बिना क्यौंहूँ बनत घनीन कौं । उदा० के सब कंस दिवान पितान बराबर ही --सेनापति । पहिरावनि पाई। --केशव पांवड़ी-संज्ञा, स्त्री० [हिं० पाँव+री (प्रत्य॰) पहीति-संज्ञा, स्त्री० [सं० प्रहित ] पकी हुई । जुता, पदत्राण । दाल । उदा० लकुट रंगीन पीतपट धोती । पगन पांवड़ीउदा० १. मूंग माष अरहर की पहिती चनक कानन मोती। -बोधा कनक समदारी जी। -रघुराज पांवर-वि० [सं० पामर] मूढ़, २ दुष्ट । २. षट भाति पहीति बनाय सची। पुनि उदा० अकुल कुलीन होंत पांवर प्रवीन होत, दीन पांच सो व्यंजन रीति रची। --केशव होत चक्कवै, चलत छत्र छाया के। -देव पहु-संज्ञा, स्त्री० [सं० पाद, हिं० पौ] ज्योति, पांवरी--वि० [सं० पामर] तुच्छ, नगण्य, अधम प्रकाश । २. [पौ फटना-सुबह होना, प्रातः उदा० पाँवरी पेवरी ता छिन त दुतिकंचन की मन काल । रंच न लैहै। --द्विजदेव उदा० १. आज सखी हम इम सुन्यो, पहुफाटत पाँह-अव्य० [सं० पाव], पाश्र्व बगल । पिय गौन । -समा विलास उदा० बाँह दै सीस, उँमाह दे नैनन, पाँह दै प्रोट, २. पहिलैं तो भयो पह को सो उदो कह पनाह दै नाहै। -द्विजदेव सुंदर मंदिर के चहुँ ओरनि। -सुंदर पाइ-संज्ञा, स्त्री० [सं० पाद] १. किरण २. पहुरनी--संज्ञा, स्त्री० [सं० प्राहुण ] पाहुनी, पैर। अतिथि। उदा० कब दिन दुलह के अरुन-बरन पाइ, पाइ हौं उदा० साँझ ही तें सोई कहा, काहू की पहुरनी सुभग, जिन पाइ पीर जाति है। है, सोवनी जु कीनी करता सों कहा -सेनापति करिये। -पंग पाइते-संज्ञा, पु० [सं० पाद+हि. तम] पैर की पहुला--संज्ञा, पु० [सं० प्रफुला ] कुमुद पुष्प, __ ओर, गोड़िहाने, पइताने । कोंई। उदा० जो पल मैंपल खोलि कै देखों तो पाइते बैठ्यो उदा० पहला हार हिये लसै सनकी बेंदी माल । पलोटत पाइन । -सुन्दर -बिहारी पाइपोस-संज्ञा, पु० [फा० पापोश] जूता, पदपहेल-संज्ञा, पु० [हिं० पहला] १. किसी काम घाण का प्रारम्म, शुरुवात । २. हटाने या दूर करने उदा० सेनापति निरधार, पाइपोस-बरदार, हौं की क्रिया [सं० प्रखेट] । तो राजा रामचन्द जू के दरबार को। उदा० ग्वाल कवि बाहन की पेल में, पहेल में, के --सेनापति बातन उचेल में, के इलम सफेल में । पाइमाल-वि० [फा० पामाल, पा=पैर+ -ग्वाल माल-कुचलना] पददलित, पैरों से रौंदा हुप्रा । पहेलना-क्रि० स० [सं० प्रखेट] भगाना, हटाना [पामाली-संज्ञा] दूर करना। उदा. भूषण जौ होइ पातसाही पाइमाल औ उदा० केसर सुरंगह के रंग में रंगौगी आजु और उजीर बेहवाल जैसे बाज त्रास चरजें। गुरलोगन की लाज को पहेलिबो । -भूषण -किशोर । छाती छाज नखलीक प्रकट कपोल पीक, For Private and Personal Use Only
SR No.020608
Book TitleRitikavya Shabdakosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorilal
PublisherSmruti Prakashan
Publication Year1976
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size21 MB
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