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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दौर ( १२६ ) धधकी वौर-संज्ञा, पु० [अ०] चक्कर, फंदा २. । वौहें-संज्ञा, स्त्री० [सं० दव =ाग] ताप, आक्रमण, चढ़ाई । ज्वाला, भाग की लपट । उदा० १. जोबन जोर अनंग मरोर उठे कुच फोरि | उदा० बिछुरत वे दृग लाल के भरौंहैं भये-लाल के दौर तनी के। -गंग हिय दौहें लगी क्योहूँ नसिरात है। २. दारा की न दौरि यह खजुए की रारि वाल नाहि, बांधिबो न होय या मुरादसाह-बाल को। धोहर-संज्ञा, पु० [हिं० देव घर] मंदिर, देवा -भूषण लय। दौरई-संज्ञा, स्त्री० [सं० दव] दौरहा आग, उदा० कौन दसा बूझत हौ एहो रघुनाथ मनोरथ दावाग्नि । सिद्धि करिबे को नेक न थिरत है। देवी उदा० दौरई सी बन, दौरई फूलनि, झौरई झारि, ! देव द्योहरन केते पुर ग्रामन मे राखे मानि बयारि की झोके । --देव जेते तेते पूजत फिरत है। -रघुनाथ संज्ञा. १० [हिं० दादा] १. दादा, २. | द्वारी-संज्ञा, स्त्री० [सं० द्वार+ ई प्रत्या पिता, ३. बड़ा भाई। छोटा दरवाजा, द्वार । उहा० काली कैसे छौवा काल जौनकैसे दौवा उदा० द्वारी निहारि पछीति की मीति में टेरि महानीच कैसे भैया चेति हौवा परदेस के । सखी मुख बात सुनाई । -प्रताप साहि -केशव धंका--संज्ञा, स्त्री० [हिं० धाक] १. धाक, रोब । धका--संज्ञा, पु० [हिं० धक्का] १. आपत्ति, आतंक २. प्रसिद्धि । संताप २. हानि, नुकसान । उदा० १. एक यह कहा ऐसे मारिकै अनेक बीर उदा० हा हम सों बलि कौल करौ कहती हमै पालने बिरद मोहि दसरथ धंका को । नाहिनै संक धका की। -बोधा -रघुनाथ धच्छना--क्रि० अ० [अनु० ] धक्का देना, धंध-संज्ञा, स्त्री० [हिं० धंधार ] ज्वाला, मारना । लपट । उदा० सुद्ध सहसच्छ के बिपच्छिन के धच्छिबे कों उदा० तूलन तोपिक ह्र मतिअंध हुतासन-धंध मच्छ कच्छ आदि कलाकच्छिबो करत हैं। प्रहारन चाहैं। -दास -पदमाकर धुंधर-संज्ञा, स्त्री० [हिं० धुंध] हवा में उड़ती घजा-संज्ञा, पु० [सं० ध्वजा] १. मस्तक, सिर हुई धूल २. अँधेरा। २. ध्वजा । उदा० धूर धुंध धुंधर धुवात धूम धुंधरित । उदा० १. कहें देत बाह के प्रवाह ऊदावत राम. -पजनेस कहूँ कुँजर धजानि धूरि धूसर। - गंग धुंधरित-वि० [हिं० धुंधूर] धूमिल, धुंधला घधकी-संज्ञा, स्त्री॰ [देश॰] १. ढोलक नामक किया गया। एक बाजा , २. डफली, जिसे होली के अवसर उदा० धूर धुंध धुंधर धुवात धूम धुंधरित धुंधर पर लोग बजाते हैं। सुधुंधरित धुनि धुरवान में। -पजनेस उदा० धूम धधकोअन की धषकी बजत तामे ऐसो षक-संज्ञा, स्त्री० [अनु॰] चोप, उमंग । अति ऊधुम अनोखो दरसत है। उदा० रहत अछक पै मिटै न धक पीवन की -पद्माकर निपट जू नाँगी डर काहू के डर नहीं। धधकी है गुलाल की बूंधर में धरी गोरी -भूषण लला मुख माड़ि सिरी। -पजनेस For Private and Personal Use Only
SR No.020608
Book TitleRitikavya Shabdakosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorilal
PublisherSmruti Prakashan
Publication Year1976
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size21 MB
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