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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजविद्या। [२५] तेज से जल और जल से पृथिवी हुइ । तिन से काम क्रोध लोभ मोह अहंकार के साथ दान धृ. ति तेज शूरवीरता और माल की भाव की प्राप्ती है और इन से स्वदेश मातृ भाषा भोजन वेष विवाह और पुरुषार्थ के साथ प्रवर्त कीया जाता है जिन से धर्म धरा धन दारा और प्राणों का संबन्ध हैं । फेर ज्ञान योग मे ब्यवस्थिति अपनी ही राजविद्या का अभ्यास न्याय अभय और सरलपन से प्रेरयते (प्रेरणा कीया) जाता है तिन से उत्साह नित्त में गंभीरता बल बुद्धि के पराक्रम के साथ शुद्ध भावना और अपने माफिक सब प्राणियों में देखता है और तमाम उपयोगी अभ्यास और ज्ञान के सार को तत्त्व करके देखना। दीन (गरीब ) की रक्षा करना सदाचार शरीर इन्द्रिय वश में रखना जितेन्द्रिय पन्न मनुष्य की बुद्धि ही धारण कर शक्ति है वह राजा लम. स्त पृथिवी भर का है। कामाद्धम संग्रहो तस्य च रक्षणं For Private And Personal Use Only
SR No.020594
Book TitleRajvidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbramhachari Yogiraj
PublisherBalbramhachari Yogiraj
Publication Year1930
Total Pages308
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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