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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इच्छा न हो, परन्तु सब को साथ ही जीना पड़ेगा। एकत्व भावना से हमें यही सिखना है कि हम ही एकदम चीपक न जाय....कहीं आशक्त न बन जाय, रागी न बन जाय, रागी बनेंगे तो द्वेषी बनना ही पड़ेगा क्योंकि राग के पीछे ही द्वेष छीपा है। राग टूटता है तो द्वेष होता है। पसंद-नापसंद बिना की असंग की साधना एक बहुत बड़ी कला है। जो प्रभु कृपा के बिना मिलती नही हैं। प्रभु के प्रेम में अगर रस आने लगे, आनंद का अनुभव होने लगे तो दूसरी जगह संग करने का मन नहीं होगा। असंग में सुख ऐसा सोचकर या सुनकर आप देव-गुरू शासन आदि को बंधन/संग समझकर उसका त्याग मत कर देना। कर्म के बंधन से छुटने के लिए धर्मशासन का बंधन अत्यन्त जरूरी है। वर्ना शासनबंधन से छुटकर मोह बंधन स्वीकारना पड़ेगा। हकिकत में तो देवगरू या शास्त्र को बंधन रूप मानना ही मोह का बंधन है। हीरे को काटने के लिए हीरा ही चाहिए। लोहे को काटने के लिए लोहा ही चाहिए, वैसे संसार बंधन कांटने के लिए देवगुरू शास्त्र का बंधन स्वीकारना चाहिए। देवगुरू शास्त्र हमारी आंखों में ऐसा अंजन करते हैं कि हमे असंग में ही रस आने लगता है। सड्गः सर्वात्मनात्याज्यः सचेत्त्युक्तंनशक्यते। सद्भिः सह कर्तव्यः सन्तः सगस्य भेषजम्। संग सर्वथा त्याज्य है, अगर छोड़ सके वैसा न हो तो संतो के साथ संग करना चाहिए। संत ही संग की औषधि है। 159 For Private And Personal Use Only
SR No.020580
Book TitlePriy Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasagar
PublisherPadmasagarsuri Charitable Trust
Publication Year2006
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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