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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस न्यायोपाध्याय ने उस पंड़ित को ललकारा था, वाद हुआ और उसमें पंडित को परास्त भी किया। तब काशी के भट्टाचार्यों ने मिलकर, उस दिन इस महाज्ञानी को "न्याय विशारद" की पदवी दी थी। भगवान अभी हम पर दो प्रकार से उपकार कर रहे है। आगम और मूर्ति से। इन दोनो में मंत्र और मूर्ति रूप में साक्षात् भगवान ही है। ___ मन्त्रमूर्ति समादाय, देवदेव: स्वयं जिनः। सर्वज्ञः सर्वगः, सोडयं साक्षात् व्यवस्थितः।। मंत्र और मूर्ति के रूप में साक्षात् भगवान ही बिराजमान है। पंड़ित वीर विजयजी कह रहे हैं। मोह के विष को उतारने के लिए प्रमुख रूप में दो ही साधन बताये है। (1) जिनागम और (2) जिनप्रतिमा इन दोनों में जिनागम प्रथम है। क्योंकि विधि, आचार, आशातना आदि का विवेक ज्ञान से ही मिलता है। “विषम काल जिन बिंब जिनागम, भवियण कुंआधारा'' इस काल में ये दोनों हमें भव सागर से बाहर निकलने के लिए स्टीमर के समान है। मूर्ति भक्तिपूर्ण जीवन के लिए है और आगम ज्ञानपूर्ण जीवन के लिए हैं। जहाँ कहीं भी श्रेष्ठ है, वह सब जिनागमरूपि समुद्र में से उछले हुए बिंदु ही है। पुज्य सिद्धसेनदिवाकरसूरिजी के शब्द भी इस विषय में स्मरण के योग्य हैं। मूर्ति के दर्शन में जैसे आनंद आता है, वह आनंद जैसे कर्म निर्जरा का कारण है वैसे किताबें पढ़ते हुए भी आनंद आता है वह आनंद भी कर्म निर्जरा का कारण बनता है। तो आनंद देने वाली दो चीजें हैं प्रतिमा और पुस्तक (शास्त्र) हम अखबार पढ़ सकते हैं, हम साप्ताहिक और मासिक मैगजिन पढ़ सकते है उसे पढ़ने का समय हमारे पास है परन्तु दुःख की बात है कि अच्छी किताबें हम नहीं पढ़ सकते उन्हें पढ़ने का समय हमारे पास नहीं है। एक आदमी किताब बेचने निकला था। वह शब्दकोश बेच रहा था, गृहिणी से कहने लगा। कि शब्द कोश जरूर खरीद लें क्योंकि बहुत ही अच्छा हैं। बच्चों को बहुत काम लगेगा। गृहिणी टाल रही थी, मुझे खरीदना नहीं है। कोई दलील न चली तो उसने कहा कि देखते नहीं वह टेबल पर हमारे 1931 For Private And Personal Use Only
SR No.020580
Book TitlePriy Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasagar
PublisherPadmasagarsuri Charitable Trust
Publication Year2006
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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