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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिस्पर्धीयों में इर्ष्या जगाई है जो अभी निंदा रूप में बाहर आ रही है। “डेल कार्नेगी" कहते है- अनुचित टीका परोक्ष रूप में आपकी प्रशंसा ही है। याद रखें आदमी मरे हुए कुत्ते को लात नहीं मारता । हम भूल करे तब दुनिया निंदा करे किंतु भूल बिना निंदा करे तब कैसे चला ले? ऐसा सोचना मत , आप बर्फ या आकाश जैसे स्वच्छ हो, फिर भी लोग आप के विषय में कुछ नहीं बोलेंगे, ऐसा मानना ही मत । अरे! राम को नहीं छोड़ने वाले लोग आपको छोड़ देंगे? आदमी की एक बड़ी खूब विशेषता है। जब वह किसी की अच्छी बात सुनता है तब शायद ही सच मानता है। परन्तु किसी की गलत बात तुरन्त ही सच मान लेता है। किसी भी आदमी की परीक्षा कर लेना। दूसरे की क्यों? अपनी ही मनोवृत्ति का विश्लेषण करके देखे न? किसी के विषय में प्रशंसा सुनी, कि फलां आदमी बहुत दानी है। अपना शंकाशील मन तत्काल बोल उठेगा ना! कोई इतना दान कैसे कर सकता है? ये तो दो नंबर का निकाल है। ये कोई दान है, किसी अति सज्जन गिनेजाने वाले आदमी पर पाँच सात लाख रू. के घोटाले या आक्षेप की बात सुनी तो अपना शंकाशील मन तुरन्त बोल उठेगा देखा ना, हम तो पहले से ही कर रहे थे। ये आदमी ऐसा ही है , पाँच सात नहीं ज्यादा होंगे, जरा अंदर/भीतर से खोज करो। इस तरह की मानसिक विकृति के कारण ही हमें दूसरे की निंदा सुननी अच्छी लगती है। अपनी श्रवण रूचि को देखकर बोलने वाले भी (सुनाने वाले भी) मस्ती में आ जाते है और मिर्च-मसाला डालकर ज्यादा से ज्यादा अपने को उत्तेजित करते है। ऐसे लोगों से बचने की जरूरत है। समझदार तो तुरन्त समझ जाते है। जो मेरे आगे दूसरे की बुराई करता है वह मेरी बुराई दूसरे के आगे कर सकता है। एक जगह शेखसादी की बात पढ़ी थी । आदमियों के गुप्त दोष प्रगट मत कर। क्योंकि तू उन्हें लज्जित करेगा और अपने आपको अविश्वस्त । चाणक्य कहते हैं। "अशक्तास्तत्पदं गन्तुंततो निंदां प्रकुवर्ते" निंदक को ऐसा भ्रम होता है कि दूसरे सब दोष भरे है अकेला मैं ही दोष मुक्त हूँ। दूसरे सब कौवे में अकेला ही हंस। दूसरे सब कोयले मैं अकेला ही हीरा । दूसरे सब पत्थर मैं अकेला ही पारस! दूसरे सब कांटे मैं अकेला ही फूल! मैं अकेला ही शेर दूसरे गीदड़। - 13 - For Private And Personal Use Only
SR No.020580
Book TitlePriy Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasagar
PublisherPadmasagarsuri Charitable Trust
Publication Year2006
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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