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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुआ हो, परन्तु अभी ये सारे यंत्र आदमी की आलस का पोषण कर रहे हैं, और इन यंत्रों के कारण पूर्व की अपेक्षा वर्तमान समय में मनुष्य अधिक आलसी और पराधीन बन गया है। प्रमाद यानी आलस, लौकिक दृष्टि से आलस का अर्थ कर रहा है। लोग कहते है प्रमाद यानी प्रवृत्ति का अभाव । जैन दर्शन कहता है लगातार प्रवृत्ति में भी प्रमाद हो सकता है। प्रमाद में रहने पर आदमी आत्मा की आवाज को नहीं सुन पाता और अन्तर्मुखता विकसित नहीं कर सकता। ऐसे प्रमादी आदमी से तो भेड़ बकरियाँ अच्छी हैं, जो गड़रिये की आवाज सुनकर खाना-पीना छोड़कर उधर ही तुरन्त दौड़ पड़ती हैं, किन्तु मनुष्य इतना लापरवाह है कि वह प्रमाद के वशीभूत होकर आहार-विहार में, संसार के प्रपंचों में ही पड़ा रहता है। अपने भीतर देखने का मौका ही नहीं निकाल पाता। तथागत बुद्ध ने अपने भक्तों को उपदेश देते हुए कहा था कि "संसार की सभी चीजें बनी हैं, इसलिए बिगड़ने वाली है, नष्ट होने वाली है अतः तुम लक्ष्य की प्राप्ति में प्रमाद मत करना। क्योंकि प्रमाद आदमी की जीवित मृत्यु है। प्रभु महावीर ने भी कहा था। "समयं गोयम मा पमायए" हे गौतम! तुम समय मात्र का भी प्रमाद मत करो। उसे तो "भारण्डपक्खीव चरेऽपमत्ते' के द्वारा भारण्ड पक्षी के समान अप्रमत्त जीवन जीने के लिए कहा है ताकि वह सावधान चित्त होकर साधना के क्षेत्र में निरन्तर आगे बढ़ता रह सके । प्रमादी को चारों तरफ से भय है, अप्रमादी को कहीं से भी नहीं। जीवन प्रमाद में ही पूरा न हो जाय, यदि प्रमाद में जीवन पूरा हुआ तो फिर चौरासी का चक्कर तैयार है। “पमायं कम्मनाह सु अप्पमायं तहाडवर" प्रमाद, कर्म का आश्रव (आगमन) है और अप्रमाद संवर (रोकना) है। प्रमाद के रहने तक व्यक्ति बाल अज्ञानी ही रहता है जबकि प्रमाद के नहीं होने से मनुष्य पंडित होता है। कर्मबंध का बहुत बड़ा कारण प्रमाद ही है। इसलिए परमात्मा महावीर ने अपने अमर सन्देश में जगाते हुए कहा हैं- "तम्हा जागरमाणा विधुणय, परोणय कम्म' अर्थात् सतत जागृत रहकर पूर्वार्जित कर्मों को नष्ट करो। नीतिकारों %3 -176 For Private And Personal Use Only
SR No.020580
Book TitlePriy Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasagar
PublisherPadmasagarsuri Charitable Trust
Publication Year2006
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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