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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कहा हैं, पहले जागो ऐसा नहीं कहा । प्रश्न होगा कि पहले जागना कि पहले उठना? उपनिषद् के ऋषि को मालुम है..... पहले जागने को कहुँगा तो, फिर सो जाएगा, अतः पहले उठो...... पहले बिछौने से खड़ा हो जा, बिस्तर को छोड़ दें। बाद में लगभग पुनः सोने का मन नहीं होगा। तत्पश्चात् जागो। जागना अर्थात् जीना। केवल श्वासोच्छ्वास चले वह जीना नहीं है, आदमी जाग्रती में रहे उसका नाम जीना है। प्रमाद, आलस, सुस्ती, अनुत्साह ये सब पर्यायवाची शब्द है। पूज्य यशोविजयजी महाराज ने प्रमाद को शत्रु कहा है, सिर्फ उन्होंने ही नहीं प्राचीनकाल से शास्त्रकार प्रमाद को शत्रु कहते आये है: "प्रमाद एव मनुष्याणां, शरीरस्थो महारिपुः" शत्रु पास में बैठा हो तो किसी को भी अच्छा नहीं लगता। कभी निकट में बैठा हो तो मन में यही होगा कि कब ये यहाँ से उठे! वह चला जाय तभी शान्ति होती है। किन्तु आश्चर्य की बात है। प्रमाद अपने में पड़ा है फिर भी हम आनन्दित हैं। चाहते हैं कि अधिक देर रहे तो अच्छा है। जिसकी मौजुदगी में आनंद आये उसे शत्रु कैसे कह सकते हैं? यह प्रच्छन्न शत्रु है। प्रगट शत्रु फिर भी अच्छा, किन्तु ऐसा शत्रु खतरनाक है! बाहर से मीठा अन्दर से दुष्ट! प्रमाद अगर शत्रु है तो अप्रमाद, (उद्यम) मित्र है। प्रमाद अच्छा लगता है फिर भी शत्रु है और अप्रमाद अच्छा नहीं लगाता फिर भी मित्र है। कभी-कभी शब्दजाल हमें मूर्ख बना जाते है। जैसे "हम तो आराम कर रहे हैं। आलस शब्द फिर भी कानों में चुभता है, परन्तु आराम शब्द बहुत अच्छा लगता है। आलस्य हमारा शत्रु है। आलस्य के कारण ही हम कभी-कभी करने योग्य कार्य भी नहीं कर पाते हैं। आलस्य के कारण ही हम पीछे रह जाते हैं। आलस्य के कारण ही जो हासिल करना चाहते थे, जिसमें कामयाब होना चाहते थे, जिस में सफलता अर्जित करना चाहते थे, वह नहीं कर पाते हैं। जब कभी हमारे सामने कोई काम आ जाय तो बैठे न रहे, सोये न रहे, होता है, चलता हैं, न बोलें अपितु उस कार्य में अपने को लगा दो। यह शत्रु बड़ा ही चालाक है, कार्य को बाद में करने के भरोसे पे छोड़ने के लिए कहता - %3 -174 For Private And Personal Use Only
SR No.020580
Book TitlePriy Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasagar
PublisherPadmasagarsuri Charitable Trust
Publication Year2006
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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