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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भी कुछ तरीके बताये हैं जिनसे हम जान सकते हैं कि हम सम्यक्त्वी हैं या नही? अगर आपके दिल में शत्रु और मित्र के प्रति समभाव है, जय पराजय में भी सुख दुःख नहीं मानते हैं, और संसार की नश्वरता जानकर आपका मन उससे विरक्त रहता है, संसार को जेल समझता है और छुटने के लिए अकुलाता है तो समझिये कि सम्यक्त्व का कुछ अंश आपने पाया है। संसार में अनेक प्रकार के आरम्भ-समारम्भ के कार्य होते हैं, जिन्हें जानकर आपका मन दुःखी होता है और संक्लेश पाते हुए जीवों को देखकर आप करूणा से द्रवित हो जाते है एवं उस वक्त आप संक्लिष्ट भावों का अनुभव नहीं करते है वरन् इर्ष्या, द्वेष आदि से रहित होकर दुःख निवारण के लिए तत्पर बनते है तो समझिए कि सम्यक्त्व के लिए आपकी मनोभूमि उर्वरा है एवं जिन वचनों के प्रति अनुराग बढ़ने वाला है। इससे विपरीत स्थिति आपको दुर्गति में डालने वाली है। धर्म के प्रति आपकी रूचि नहीं है, धार्मिक लोगों का आप उपहास करते है और भली बात भी आपको कटू लगती है। ठीक उसी प्रकार कि ज्वरग्रस्त व्यक्ति को दूध सदृश मधुर पदार्थ भी कड़वा लगता हैं, आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में रोग की चिकित्सा करने के दो तरीके हैं (1) रोगों का शोधन किया जाता हैं। (2) रोग का उपशमन किया जाता है। प्रथम तरीके में रोग का कारण जानकर उसका निदान किया जाता है ताकि पुनः वह रोग उत्पन्न ही न हो। दूसरी पद्धति में रोगों का उपशम न किया जाता हैं। समय पाकर कुछ विषमताओं के कारण वे रोग पुनः प्रगट हो सकते हैं। आपको भी मिथ्यात्व का जो रोग लगा है उसका शंसोधन किजिए। अगर केवल उपशमन ही किया तो याद रखिये ग्यारहवें गुणस्थानक से पुनः नीचे आना पड़ेगा। इस प्रकार शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और (आस्था) आस्तिक्यता रूप पांचों लक्षणों से अपनी पहचान करिए। “नत्त्यि चरित सम्मत्तविहूण' सम्यक्त्व के बिना चारित्र भी नहीं है। यद्यपि मोक्ष की प्राप्ति के लिए चारित्र अनिवार्य आवश्यकता है, किन्तु सम्यक्त्व उससे भी पहले आवश्यक है। सम्यक्त्व में दृढ़ रहना जरूरी है। समकित पा लेने पर जीव उसे पुनः -171 For Private And Personal Use Only
SR No.020580
Book TitlePriy Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasagar
PublisherPadmasagarsuri Charitable Trust
Publication Year2006
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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