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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भी झगड़े, कलह या समस्याएँ हैं उनका मूलभूत कारण भी यथार्थ दृष्टि का अभाव है। ___एक आदमी प्रतिदिन एक तालाब के किनारे घूमने जाया करता था। उस तालाब में एक मछली थी। वैसे तो कई मछलियाँ थी किन्तु एक मोटी मछली थी जो उस आदमी के प्रतिबिम्ब को पानी में देखती थी। एक दिन उसने देखा कि उस आदमी का सिर नीचे और पाँव उपर है। प्रतिबिम्ब में ऐसा ही दिखता है। दूसरे दिन भी मछली ने ऐसा ही देखा । जब तीसरे, चौथे, पाँचवे दिन और आगे भी ऐसा ही देखा तो उसने धारणा बना ली कि मनुष्य उस प्राणी का नाम होता है जिस के सिर नीचे और पाँव उपर होते हैं। एक बार वह आदमी तालाब के किनारे पानी के निकट घूम रहा था कि मछली पानी की सतह पर उपर आ गई। उसने सिर उँचा किया तो आज नया ही दृष्य देखा और विस्मित हो गई। आज देखा तो आदमी का सिर उपर और पांव नीचे हैं। कुछ देर सोचा फिर विचार करती है कि मालुम पड़ता है यह आदमी आज शीर्षासन कर रहा है। न तो वह आदमी आज शीर्षासन कर रहा है और न सदा ही उसके पाँव ऊपर व सिर नीचे रहते है। यह तो उस मछली की अयथार्थ/मिथ्यादृष्टि का ही परिणाम है जो सीधे आदमी को भी उल्टा ही देख रही है। यह हालत केवल उस मछली की ही नहीं है। ऐसी हालत आज हम सभी की हो रही है, जो वस्तु के यथार्थ स्वरूप को नहीं जान कर मिथ्यात्वदशा के कारण, उल्टे स्वरूप को देखकर उसे ही सही मान रहे हैं। यह भ्रमणा तभी तक रहती है जब तक हम सम्यक्त्व न पा लें। समकित पा लेने पर जो वस्तु जिस रूप में हैं उसी रूप में देखती है जैसी वह है। समकित का स्वरूप समझाते हुए वीर प्रभु ने उत्तराध्ययन सूत्र के अट्ठाइसवें अध्ययन में कहा है। तहियाणंतु भावाणं, समावे उवएसणं। भावेणंसह संतस्स सम्मतंतं वियाहिय।। जीव-अजीव आदि तत्त्वों के विषय में गुरूजनों का जो उपदेश है उसे 169 For Private And Personal Use Only
SR No.020580
Book TitlePriy Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasagar
PublisherPadmasagarsuri Charitable Trust
Publication Year2006
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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