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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०१२ अध्ययनोपसंहारः ९४३ टीका- ' एवमिणं ' एवम् अनेन प्रकारेण इदम् = अपरिग्रहनामकं ' संवरदारं ' संवरद्वारम् ' संवरियं ' संहतं = संसेवितं सत् ' सुप्पणिहियं' प्रणिहितं सु रक्षितं ' होइ' भवति । ' मणवयणकाय परिरक्खिए हिं' मनोवचनकायपरिरक्षितैः= योगत्रयपरिरक्षितैः ' इमेहिं पंचहिं वि कारणेहिं ' एभिः पञ्चभिरपि कारणैः = पूर्वोक्ताभिः पञ्चभिर्भावनाभिरित्यर्थः ' गिच्चं ' नित्यम् ' आमरणंत' आमरणान्तं = मरणपर्यन्तं च ' एसजोगो एप योगः = अपरिग्रहलक्षण संवररूपव्यापारः 'धिःमया ' धृतिमता=स्वस्थचित्तेन ' मझ्झ्या ' मतिमता हेयोपादेय बुद्धियुक्तेन 'नेयत्रो ' नेत्तव्यः - वोढव्यः - परिपालनीय इत्यर्थः । कीदृशोऽयं योगः ? इत्याह-अयं योगः ' अणासत्रो ' अनाश्रवः - नूतनकर्मागमनरहितत्वात्, 'अकलुसो ' अकलुपः- शुभाव्यवसायत्वात् अच्छिदो ' अच्छिद्रः- छिन्नस्रोतस्त्वात्, 'अपरिस्साई ' " 6 अब सूत्रकार इन पांचवें संवरद्वार का उपसंहार करते हैं- 'एवमिण' इ० टीकार्थ - ( एवमिणं संवरदारं ) इस प्रकार से यह अपरिग्रह नाम का संवरद्वार ( सम्मसंवरियं ) अच्छी तरह सेवित होने पर ( सुप्पणिहियं ) सुरक्षित हो जाता है। इसलिये ( मणवयण काय परिरक्विएहिं ) मन, वचन और कायरूप तीन योगों से परिरक्षित हुई (इमेहि पंचहि कारणेहिं ) इन पांच भावनाओं का ( णिच्चं ) सदा ( आमरणंत ) मरणपर्यन्त - यावज्जीव (एस जोगो) यह अपरिग्रहलक्षणसंवररूप व्यापार ( धिमया महमा नेयत्रो ) धैर्यशाली एवं हेय और उपादेय के विवेक से युक्त बुद्धिवाले साधुजन को सेवन करना चाहिये, क्यो कि यह योग (अणासवो) नवीन कर्मों के आगमन से रहित होने के कारण अनाश्रवरूप है, (अकलुसो) शुभाध्यवसायरूप होने से अकलुष है, (अच्छिदो ) इसमें पापका स्रोत छिन्न हो जाता है इसलिये अच्छिद्र 77 હવે સૂત્રકાર આ પાંચમાં સવદ્વારને ઉપસહાર કરે છે टीअर्थ - " एवमिणं संवरदारं " या प्रमाणे या अपरियड नामना संव२द्वा२नुं “ सम्भं संवरियं " सारी रीते सेवन थतां " सुप्पणिहियं " सुरक्षित यह भय छे. तेथी "मणत्रयणकायपरिरक्खि एहिं " भन, वयन भने छाय, मे भागे योगोथी परिरक्षित थये “ इमेहिं पंचहि कारणेहि " से पाये लावनागोनुं “णिच्चं અપરિગ્રહસ’વરરૂપ વ્યાપાર धिमया मइमया नेव्वो " धैर्यशाणी मने डेय અને ઉપાદેયના વિવેકથી યુક્ત બુદ્ધિમાન સાધુએ સેન કરવું જોઈએ, કારણુ े ते योग " अणोसवो” नूतन उभेना आगमनथी रहित होवाने अर अनाश्रव३५ छे. “अकलुसो शुल मध्यवसायश्य होवाथी सम्दुष छे, “अच्छि दो” 66 आमरणंत સદા वन पर्यन्त “ एसजोगो " આ ८८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ܕܕ . For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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