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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 4 www.kobatirth.org सुदर्शिनी टीका अ०५ सू. ९ ' घ्राणेन्द्रियसंवर' नामक तृतीय भावना निरूपणम् ११७ किमिण बहुदुरभिगंधाई, अन्नेसु य एवमाइएस गंधेसु अमणुन्नपावरसु न तेसु समणेण रूसियव्वं न हीलियव्वं जाव पणिहिईदिए चरेज्ज धम्मं ॥ सू० ९ ॥ " 4 टीका - तइयं तृतीयां घ्राणेन्द्रियसंवरणाभिधेयां भावनामाहघाणिदिरण ' प्राणेन्द्रियण 'मणुन्नभहगाई' मनोज्ञ भद्रकान् 'गंधाई' ' गन्धान् evarta ' अघाय ' किंते ' कान् तान् = कथम्भूतास्तान् गन्धान् ? इत्याहजलयर-थलयर-सरस- पुप्फफलभोयण - कुट्ट - तगर - पत्त - चोय दमणग- मरुय - एलारस पकमंसि - गोसीस - सरस- चंदण - कप्पूर- लवंग- अगर- कुंकुम ककोल्लउसीर-सेस- चंदण-सुगंध सारंग जुत्तिवर धूववा से ' जलचर-स्थलचर- सरस- पुष्पफल- पानभोजन- कुष्ठ- तगरपत्रत्वचा दमनक - मरुकैलारस-पक्रमांसी- गोशीर्षअब सूत्रकार परिग्रह विरमण व्रत की तीसरी भावना को समझाते हैं-' तइयं ' इत्यादि । - 4 । टीकार्थ - (asi) इस की तीसरी भावनाका नाम घ्राणेन्द्रिय संवरण है । इस भावनावाले साधु को घ्राणेन्द्रियके मनोज्ञ भद्रक गंध को सूंघ करके राग नहीं करना चाहिये और अमनोज्ञ पोपक अशुभगंधों को सुंघकर द्वेष नहीं करना चाहिये। इस सूत्र में इसी विषय को सूत्रकार विशेषरूप से स्पष्ट करते हैं (किं ते) वह मनोज्ञ भद्रक गंध कौन हैं इस प्रकार की आशंका उत्तर देते हुए सूत्रकार कहते हैं - ( जलचरथलचर- सरस- पुष्पफल- पाणभोयण- कुछ-नगर- पत्त-चोय - दमणकमरुय - एलारस-पक्कवमंसिगोसीस - सरसचंदण - कप्पूर - लवंग - अगुरु कुंकुम - कंकोल्ल- उसीर- सेसचंदण सुगंध-सारंग जुत्तिवर-धूववासे) " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir હવે સૂત્રકાર પરિગ્રહ વિરમણ વ્રતની ત્રીજી ભાવના સમજાવે " तइय " प्रत्याहिटीअर्थ - " तइय આ વ્રતની ત્રીજી ભાવનાનું નામ ઘ્રાણેન્દ્રિય સંવરણ છે. આ ભાવનાવાળા સાધુએ ઘ્રાણેન્દ્રિયને માટે મનેજ્ઞ ભદ્રક ગધને સૂધીને તેમાં રાગ કરવા જોઇએ નહીં. અને અમનેજ્ઞ પાપક અશુભ ગધાને સૂધીને તેમના પ્રત્યે દ્વેષ કરવા જોઈએ નહીં. એ જ વિષયનું સૂત્રકાર વિસ્તારથી स्पष्टी४२ रे छे. " किं ते " ते मनोज्ञ लद्र गंध शेनी शेनी होय छे ते प्रश्न उत्तर आपता सूत्रार उडे छे -" जलयर - थलयर - सरस- पुष्कफलपाणसोयण- कुट्ट - तगर-पत्त-चोय - दमणक-मस्य- एलारसपकमंसि - गोसीस - सरसचंदण -कपूर- लवंग- अगुरु-कुंकुम - कंकोल - उसीर - सेसचंदण - सुगंध सारंग जुत्तीवर For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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