SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 964
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir , सुदर्शिनी टीका २०५ सू०८ 'चक्षुरिन्द्रियसंवर' नामक द्वितीय भावनानिरूपणम् ९१५ नेन प्रकारेण 'चक्खुइंदियभावणाभाविओ' चक्षुरिन्द्रियभावनाभावितो 'भवइ भवति 'अंतरा' अन्तरात्मा - जीवः । ततश्च 'मणुष्णामणुष्णसुभिदुब्भिरागर्दी से ' मनोज्ञामनोज्ञसुरभिदुरभिरागद्वेषे, 'पणिहियप्पा' प्रणिहितात्मा : साहू ' साधुः 'मणवयणकायगुत्ते ' मनोवचनकाय गुप्तः, ' संबुडे ' संवृतः 'पणिहिईदिए' मणिहितेन्द्रियो ' धम्मं ' धर्भे ' चरेज्ज ' चरेत् । एषां पदानां व्याख्याऽस्यैव प्रथमभावनायां द्रष्टव्या ।। ० ८ ॥ प्रकार से ( चक्खु इंदिय भावणाभाविओ अन्तरप्पा ) जब चक्षु इन्द्रिय की भावना से भावित अंतरात्मा होता है तब वह (प्रणुण्गामणुण्णसुभिदुभिरागदोसे पणिहियप्पा) मनोज्ञरूप चक्षुइन्द्रिय के अशुभ वि में रागद्वेष से रहित होने से व्यवस्थित आत्मावाला (साहू) साधु (मवयणका गुत्ते) अपने मन, वचन और कायरूप योगोंको शुभ अशुभ के व्यापार से सुरक्षित कर लेता है और (संबुडे ) संबर से युक्त बन कर (पणिहिद दिए ) अपनी चक्षुइन्द्रिय को वशमें कर के ( धम्मं ) चारित्र रूप धर्म का ( चरेज्ज) पालक बन जाता है । भावार्थ- सूत्रकार ने इस सूत्रद्वारा परिग्रह विरमण व्रतकी द्वितीय भावना जो चक्षु इन्द्रिय संवर नामकी है वह कही है। इस भावना में साधु को ऐसा विचार करना सरझाया गया है कि वह इस प्रकार से अपनी चक्षुरिन्द्रिय की परिणति को ऐसी विचारधारा से सुदृढरूप में बांध कर रखे कि जिससे वह चक्षुरिन्द्रिय के विषयभूत मनोज्ञ रूपमें હ भावणा भाविओ अन्तरप्पा ” જ્યારે અંતરાત્મા ચક્ષુ ઇન્દ્રિયની ભાવનાથી ભાવિત थाय छे त्यारे ते " मणुणामणुष्णसुभदुभिरागद्दासेपणइयप्पा " भनाइय ચક્ષુ ઇન્દ્રિયના શુભ વિષયમાં અને અમનેાજ્ઞરૂપ ચક્ષુ ઇન્દ્રિયના અશુભ વિષયમાં रागद्वेषथी रहित थपाथी व्यवस्थित आत्मावाणी "साहू" आधु 66 मणवयणका यगुत्ते " पोताना भन, वयन भने अवश्य योगोने शुल अशुभ प्रवृत्तिथी सुरक्षित मनावी से छे भने “ संबुडे " संवस्थी युक्त मनीने “ पणिहिइ दिए પોતાની ચક્ષુ ઈન્દ્રિયને કાષ્ટ્રમાં રાખીને " धम्मं " ચારિત્રયરૂપ ધર્મ - नो " चरेज्ज " પાલક બને છે. " ભાવા —ત્રકારે આ સૂત્રદ્વારા પરિગ્રહ વિરમણ વ્રતની ચક્ષુઇન્દ્રિય સવર નામની બીજી ભાવના બતાવી છે. આ ભાવના દ્વારા સાધુને એ વિષય સમજાવવામાં આવ્યા છે કે તે એવી પોતાની ચક્ષુઈન્દ્રિયની પ્રવૃત્તિને એવા પ્રકારની વિચાર ધારાથી બાંધી રાખે કે જેથી ચક્ષુઈન્દ્રિય વડે દૃષ્ટિગત થતા For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy