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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे तीयाः-दर्दुराः, द्विविधाः द्विभेदाः, कच्छपाः कूर्मविशेषाः-मांसकच्छपा१, अस्थिकच्छपाश्च२, नकाः मत्स्यविशेषाः, मकराजलजन्तुविशेषाः, द्विविधाः= द्विप्रकाराः ग्राहा:तुण्डा ग्रहाः तद्भिनाश्च, दिलिवेष्टकाः, मन्दुकाः, सीमाकाराः, पुलकाः, शिशुमाराः, सर्वे ग्राहविशेषा एI, एवं-विधाः बहुपकाराः अनेक भेदाः, जलचरभेदाः सन्ति, तान् घ्नन्तीति । तथा 'एबमाई' एवमादीन्-एवंप्रकारान्पाठीनादिसदृशान् अन्यान् ‘जलयरविवाणाकए य' जलचरविधानककृतांश्चजलचराणां विधानानि-जलचरविधानानि, तान्येव जलचरविधानकानि, तानि कृतानि यैस्ते तथाभूतान्-जलचरविशेषांश्च, 'उनन्ती ' त्यग्रेग संबन्धः । 'जलय. रविहाणाकए' इत्यत्र ककारलोपो दीर्घश्वार्षत्वादिति ||मू०६॥ बहुप्पगारा) ऐसे जीव पाठीन, तिमि, तिमिगिल, अनेकझष, अनेक जाति के मंडूक, दोनों प्रकार के कच्छप, नक्र, मकर, द्विविधग्राह, तथा दिलिवेष्टक, मन्दुक, सीमाकार, पुलक, शिशुमार, ये पाँचों ग्राह विशेष, ये सभी जलचर जीवों के प्रकार हैं इन्हें ये दुष्ट मनुष्य मारा करते हैं। तथा (एवमाई जलयरविहाणाकए य) पूर्वोक्त पाठीन आदि जीवों से भिन्न जो और जलचर जीव हैं उन्हें भी ये दुष्ट मनुष्य मारा करते हैं। भावार्थ-सूत्रकारने इस सूत्र द्वारा यह स्पष्ट किया है कि जो प्राणी स्वभाव से पापी होते हैं, अथवा जिनका जीवन संयमरूपी लगाम से रहित होता है, इन्द्रियों के गुलाम होते हैं-पार कर्म से जिन्हें घृणा नहीं होती है, जिनके परिणाम उपशम भाव से रहित होते हैं, मानसिक विचार धारा जिनकी सदा मलिन बनी रहती है तथा जो दूसरों को दुःखी देखकर अथवा दुःश्व देकर आनंद मग्न बनते हैं ऐसे जीवों को बस स्था. वर जीवों के ऊपर दया नहीं आती है । वे उनके साथ मनमानी करते भा२, विधाड, तथा हलिवेट४, मन्दु, सीमा४।२, १४, शिशुभा२, से પાંચે ગ્રાહ વિશેષ, એ બધા જળરાર ના પ્રકાર છે. તેમને એ દુષ્ટ મનુષ્ય માર્યા १२. तथा " एवम इजलचरविहाणाकए य" पूर्वोत पाहन माहिये। सिवायना બીજો પણ જે જળચર જીવે છે તેમની પણ તે દુષ્ટ મનુષ્ય હત્યા કર્યા કરે છે. ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા એ સ્પષ્ટ કર્યું છે કે જે જીવ સ્વભાવથી પાપી હોય છે, અથવા જેમનું જીવન સંયમરૂપી લગામથી રહિત હોય છે. જે ઇન્દ્રિયના ગુલામ હોય છે. પાપકર્મ પ્રત્યે જેને ઘણા હોતી નથી, જેમની વૃત્તિઓ ઉપશમ ભાવથી રહિત હોય છે, જેમની માનસિક વિચારધારા સદા મલિન હોય છે, તથા જે બીજાને દુઃખી જોઈને અથવા દબ દઈને આનદિત થાય છે, એવા જીને ત્રસ, થાવર જી પર દયા આવતી નથી. તેઓ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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