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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्र जहा' उरगो यथा-सर्प इव ' कयपरनिलए चेव' कृतपरनिलयश्चैव-कृतः-आश्रयीकृतः परनिलयो येन सः, अयं भावः-यथा सर्पोऽन्यकृतविले तिष्ठति, तथैव श्रमणः परकृतगृहे तिष्ठति । तथा-' अनिलोच' अनिल इव पवन इव 'अप्पडिबद्धो' अप्रतिबद्धः-अप्रतिवन्धविहारीत्यर्थः, तथा ' जीवोव्य ' जीव इव ' अप्पडिहयगई' अपतिहतगतिः= सर्वदेशविहारीत्यर्थः । अत्र सर्वत्र 'चैत्र' शब्दः समुच्चयार्थः, 'गामे गामे य' ग्रामे ग्रामे च ' एगराय' एकरात्र ‘णगरे णगरे' नगरे नगरे ‘पंचराय' पञ्चरात्रम् , ' दूइज्जतो' बन्-विहरन् , निवासं कुर्वनित्यर्थः, तथा जिइंदिए ' जितेन्द्रियः, 'जियपरीसहे ' जितपरिषहः, अतएव 'निभए ' निर्भयः ' विऊ ' विद्वान तत्त्वज्ञ इत्यर्थः, ' सचित्ताचित्तमीसएहिं ' है ( कयपरनिलए जहा चेव उरए ) सर्प की तरह वह दूसरे ने अपने निमित्त बनाये हुए घर में रहता है, अर्थात् जिस प्रकार सर्प अन्य चूहे आदि से बनाये गये बिल में रहता है उसी प्रकार साधु भी गृहस्थ के बनाये हुए घर में रहता है। (अप्पडिबद्धो अनिलोव्व ) अनिल पवन-की तरह वह अप्रतिबद्ध - प्रतिबन्ध से रहित होता है अर्थात् वह साधु अप्रतिबन्ध विहारी होता है। तथा (जीवोव्व अप्पडिहयगई) जीव की तरह वह अप्रतिहत गतिवाला होता है-उसका विचरण सर्वत्र होता है-उसे कीसो भी देश में विचरण करने का निषेध नहीं होता है । ( गामे गामे य एगरायं ) वह हर एक ग्राम में एक रात्री तथा (णगरे णगरे य पंचरायं ) तथा प्रत्येक नगर में पांच रात्रि तक (दूइज्जते ) ठहरता है । तथा (जिइंदिए) जितेन्द्रिय (जियपरिसहे य) जितपरीषद अत एव (निभए ) निर्भय (विऊ) विद्वान्-तत्वज्ञ, वह परनिलए जहा चेव उरए" सपना भ त ५fload पोताना भाटे मनाdai ઘરમાં રહે છે, એટલે કે જેમ સર્ષ ઉંદર આદિએ બનાવેલા દરમાં રહે છે तेम साधु ५५] गृहस्थ नायसा घरमा २९ छ. “ अपडियद्धो अनिलोव्य" અનિલ-પવનની જેમ તે અપ્રતિબદ્ધ-પ્રતિબંધથી રહિત હોય છે એટલે કે તે मप्रतिमायविड डाय छ. “ जीवोव्व अप्पडिहयगई" नीम ते म. વિહત ગતિવાળો હોય છે. તેનું વિચરણ સર્વત્ર હોય છે. તેને કઈ પણ પ્રદેशमा वियवान विषेध हात नथी. “ गामे गामे य एगराय" ते ४२४ गाममा मे४ २त्री तथ! " णगरे णगरे च पंचराय” तथा प्रत्ये न॥२मा पाय रात्रि सुधी “दइज्जते ' ३।४।५ छ. तथा “जिदिए " रिन्द्रिय" जियपरि. सहेय" ५५डान तना२ पाथी " निब्भए " निमय “ विऊ” विद्वान For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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