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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीकाट अ० ५ सू०५ संयतावारपालकस्य स्थितिनिरूपणम् ॥ लक्ष्यते, तथैव श्रमणोऽपि मानापमानयोरननुभवात् हर्षग्लान्योरभावात्सर्वदैकरूप एव भवतीति । तथा उग्धोसियसुनिम्मलं' मार्जितमुनिमलम् मार्जितंतलोपरिस्थितमलापनयनेन, अतएव-सुनिर्मलं-मुप्रसन्नम् , 'आयसमंडलतलं व ' आदशमण्डलतलमिव-आदर्शः-दर्पणस्तस्य यन्मण्डलतलं-मण्डलाकार तलं तदिव 'पागडभाषेण ' प्रकटभावेन-अमायित्वादनिगृहितभावेन : सुद्धभावे ' शुद्धभावः शुद्धः भावः स्वरूपो यस्य सः, तथा-' कुंजरो व ' कुञ्जर इव ' सौडीरो' शौण्डीर:= परीषहसैन्यनिर्दलनसमर्थः, ' वसभोव' वृषभ इव 'जायथामे' जातस्थामा यथा वृषभो भारोद्वहने सामर्थ्ययुक्तो भवति, तथैव स्वीकृतमहावतभारोद्वहने साम र्थ्यसंपन्न इत्यर्थः । तथा-' सोहो व ' सिंह इव श्रमणः, अमेवार्थ स्पष्टयति'जहा ' यथा सिंह 'मिगाहिये , मृगाधिपः-अथ च तैः ' दुप्पधरिसे' दुष्पधृ. दिखता है किन्तु एकसा आकार वाला परिलक्षित होता है उसी प्रकार यह साधु भी मान और अपमान के अनुभव से रहित होने के कारण हर्ष और ग्लानि, इन दोनों प्रकार के भावों से रहित बन जाता है, अनावह सर्वदा एक रूप में ही रहा करता है। (उग्योसिय मंडलं आयंसमंडलतलं व पागडभावेण सुद्धभावे ) मांजने से-ऊपर के मैल के हटा देने से-निर्मल बने हुए दर्पणमंडल की तरह इस का स्वरूप अमायी होने के कारण प्रकट रूप से शुद्ध रहता है । ( सोंडोरो कुंजरो व ) कुंजर के जैसा यह शौंडीर-परीषहरूपी सैन्य के निर्दलन करने में समर्थ होता है। (वसभोव जायथामे) वृषभ की तरह जातस्थामस्वीकृत महाव्रतरूप भार के वहन करने में शक्तिशाली होता है। (सीहोव जहा मिगाहिवे होइ दुप्पधरिसे ) सिंह जैसे मृगों का अधिपति और उनके द्वारा अपराभवनीय होता है उसी तरह वह साधु भी એક સરખી લાગે છે એ જ પ્રમાણે સાધુ પણ માન અને અને અપમાનના અનુભવથી રહિત હોવાને કારણે હર્ષ અને શેક એ બન્ને પ્રકારના ભાવથી शविर मनी जय छ तेथी ते हमेशा समलावथी२ छ. " उग्घोसियमंडल आयसमडलतलंब पागडभावेण सुद्धभावे " wiqाथी - ७५२ २ ४१ નાખવાથી નિર્મળ બનેલ દર્પણની જેમ તેનું સ્વરૂપ અમાયી હોવાને કારણે પ્રગટ ३थे शुद्ध २३ छ. “सांडीरो कुंजरोव" हाथीनी मतेशौ ॥२--५५३३पी सैन्यने। ४२२धा दी नावाने समय छे. “वसभोव जायथामे " वृषलनाम ते स्वात महात३५ मानतुं पड़न ४२वान शतिशाणी डाय 2. “ सौहोव जहा मिगाहिये होइ दुप्पधरिसे" म सि भृगाना अधिपति तथा तेमनाथी For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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