SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 929
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८८० प्रश्नव्याकरणसूत्रे चणे ' अकिञ्चनः-निद्रव्यः, 'छिन्नगंथे' छिन्नग्रन्थः-बाह्याभ्यन्तरपग्ग्रिहरहितः, तथा-' निरुबलेवे' निरुपलेपः रागद्वेषवर्जितः, तथा-' सुविमलवरकंसमायणं चेव' सुविमलवरकांस्यभाजनमिव-सुविमलं-निर्मलं यद्वरकांस्यभाजनं तदिव 'विमुत्ततोए' विमुक्ततोयः जललेपरहितः, श्रमणपक्षे सम्बन्धहेतुस्नेहवर्जित इत्यर्थः तथा- संखे विव निरजणे' शंख इव निरञ्जनः, अयं भावः-यथा शंखो निर जनोऽर्थाच्छुक्लो भवति, तथा साधुरपि निरञ्जनः रागादिकृष्णतारहितो भवति । अत एव — विगयरागदोसमोहे ' विगतरागद्वेषमोह, विगतानष्टा रागद्वेष मोहाः यस्मात् सः तथा 'कुम्मो इव' कूर्म इव इंदिए सुगुत्ते' इन्द्रियेषु गुप्तः-यथा कच्छपो ग्रीवादि स्वाङ्गानि संगोप्य गुप्तो भवति तथैव साधुरपि विषयेभ्य इन्द्रियाणि संगोप्य गुप्तो भवति । तथा-'जचकणगं व जात्यकनकमिव-शुद्धकाञ्चनमिव 'जाय. रूवे' जातरूपा रागादिक्षाररहितत्वात् , स्वस्वरूपसंम्पन्नः, तथा 'पुक्खरपत्तं व ' अकिंचन भाव से युक्त, (छिन्नगंथे ) बाह्य और आभ्यंतर परिग्रह से वर्जित, बना हुआ वह साधु (निरुवलेवे ) राग और द्वेष से निर्लिप्त बन जाता है और ( मुविमलवरकसभायणं चेव विमुत्ततोए ) निर्मल कांस्यपात्र की तरह जल से मुनिपक्ष में सम्बन्ध के हेतुभूत स्नेह से रहित होता हुआ ( संखेविव निरंजणे ) शंख की तरह निरंजन-शुक्ल अर्थात रागादिक की कृष्णता से रहित हो जाता है। इसिलिये वह (विगयरागदोसमोहे ) राग द्वेष एवं मोह से रहित हो जाता है तथा ( कुंमो इव इंदिय सुगुप्ते ) कूर्म-कच्छप की तरह इन्द्रियगुप्त कहलाता है अर्थात् जिस प्रकार कच्छपग्रीवादिक अपने अवयवों को छुपाकर शरीर में गुप्त हो जाता है उसी प्रकार वह साधु भी विषयों से इन्द्रियों को हटाकर सुरक्षित बन जाता है। तथा (जच्चकणगं व जायस्वे ) भावथा युत, “छिन्नगंथे" मा भने मास्यन्त२ परियथा २हित मने ते साधु "निरुवलेवे” २२॥ मने देषथी मसित मनी नय छ, भने “ सुविमलवर -कसभायणं चेव विमुत्ततोए" नि साना पाथी म थी २हित-मुनिपक्ष अस'धन। तभूत स्नेऽथी २डित-थईन “ संखेविव निरंजणे" मनायो नि२०-स३४ मेटले है “ विगयरागदोसमोहे " २॥हिनी शथी २डित 25 तय छ, तथा “ कुमो इव इंदियसुगुत्ते” यमान रेवोन्द्रियशुत કહેવાય છે. એટલે કે જેમ કાચબો પિતાના ગ્રીવાદિક અવયને શરીરમાં છુપાવીને ગુપ્ત થઈ જાય છે તેમ સાધુ પણ વિષયોમાંથી ઈન્દ્રિયને હટાવીને सुरक्षित मनी लय छे. तथा "जच्चकणगं व जायरूवे " शुद्ध सुवारी नाम For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy