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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुदर्शिनी टीका म०५ सू. ५ संयताचारपालकस्य स्थितिनिरूपणम् १७७ 'अट्टकम्मगंठीविमोयगे ' अष्टकर्मप्रन्थिविमोचकः-अष्टौ अष्टसंख्यका ये कर्मग्रन्थयस्तेषां विमोचकः, तथा-' अट्ठमयमहणे' अष्टमदमथनअष्टमदस्थाननाशकः 'ससमयकुसलेय' स्वसमयकुशलश्च स्वसिद्धान्तनिपुणश्च, चकारात् परसमयकुशलः 'भवइ' भवति । तथा-' मुहदुक्रवनिधिसे से' सुखदुःखनिर्विशेषः=मुखदुःखयोहर्षशोकादिरहित इत्यर्थः, ' अभितरवाहिरम्मि तवोवहाणम्मि' आभ्यन्तरवाह्ये तपउपधाने, तत्र-चित्तनिरोधप्राधान्येन कर्मक्षपणहेतुत्वात्प्रायश्चित्तादिषट्कम्-आ. भ्यन्तरम् । बाह्यशरीरस्य परिशोषणेन कर्मक्षपणहेतुत्वादनशनादिषट्कं बाह्यम् , अनयोर्द्वन्द्वः, तस्मिन् , तप उपधाने-तपएव मोक्षमार्गस्योपष्टम्भकत्वादुपधानं तस्मिन् , 'सया' सदा · सुट्ठुज्जए ' सुष्ठुद्यतः = सम्यक्तया तदाराधने तत्पर हो जाता है । तथा ( पावयणमायाहि अहिं ) पांचसमिति, तीन गुप्ति रूप अष्ट प्रवचन माताओं के बल पर वह (अट्टकम्मगंठीविमोयणे )आठ प्रकार के कर्मों की ग्रन्थियों को छोड़ानेवाला बन जाता है । (अट्ठमयमहणे) शुद्ध सम्यग्दर्शन का पालनकर्ता होनेके कारण वह आठ मदों का विनाशक होता है । ( ससमयकुसले य ) स्वसमयमें पूर्ण निष्णात बन जाता है तथा चकारसे परसमयका ज्ञाता भी बन जाता है । (सुहदुक्खनिविसेसे) सुख और दुःख उसे एकसे प्रतीत होने लगजाते हैं। वह उनमें हर्ष और विषाद नहीं करता है। (अम्भितरबाहिरम्मि तवोवहाणम्मि) चित्तनिरोधकी प्रधानतासे कर्मक्षपण के हेतुभूत होने के कारण प्रायः श्चित्त आदि छह प्रकार के आभ्यन्तर तप रूप उपधान में तथा बाह्य में शरीर के परिशोषण से कर्मक्षपण के हेतु होने से अनशन आदिबारह प्रकार के बाह्य तपरूप उपधान में सदा (सुटुज्जए ) अच्छी तरह “पवयणमायाहिं अर्हि " पांय समिति गुलिथी मा8 प्रवयन भातामाना यी त “ अट्टकम्मगंठीविमोयणे " 18 प्रा२ना भनी ने छोरावनार मनी नय छ “ अट्टमयमहणे" शुद्ध सभ्यगूशननो पासना डावाने १२ ते मा महनी विनाश हाय छे “ससमयकुसले य" स्पसमयमा ५ નિષ્ણાત બની જાય છે તથા વાસથી પર સમયને જાણકાર બની જાય છે. " सहदक्खनिविसेसे" सुभ भने ५ तेने समi anा भांड छे. ते तेमi ४॥ ॐ विश६ ४२ते. नथी. “ अभितरबाहिरम्भि तवोवहाणम्मि" चित्तनिरी ધની પ્રધાનતાથી કર્મક્ષયના હેતુભૂત હોવાને કારણે પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ છ પ્રકારનાં આભ્યન્તર તરૂપ હોવાને ઉપધાનમાં તથા બાહ્યમાં શરીરના પરિશેષણથી કર્મક્ષયના હેતુભૂત હોવાને કારણે અનશન આદિ બાર પ્રકારના બાહ્ય તપ ३५ उपधानमा सहा “ सुठुज्जए" सारी रीत ते तत्५२ ५५ लय छ, मेटले For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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