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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीकाट अ० ५ सू०१ परिग्रहविमणनिरूपणम् श्रमणो भवति । एतदेव वर्ण्यते-' आरंभ परिग्गहाओ' आरम्भपरिग्रहात्-आरम्भः =पृथिव्याधुपमर्दः, परिग्रहः बाह्याभ्यन्तरनेदाद् द्विविधः, तत्र-बाह्यः परिग्रहः धर्मोपकरणातिरिक्तभिन्नवस्तुग्रहणं, धपिकरणेषु मूर्छा च । आन्तरः परिग्रहस्तु-मिथ्याविरतिकपायप्रमादाशुभयोगरूपः, अनयोः समाहारद्वन्द्वः, तस्माद् 'बिरए' विरतो यः म श्रमणो भवति । तथा यः ‘कोहमाणमायालोमा' क्रोधमानमायालोभात् , अत्र-समाहारत्वादेकत्वम् 'विरए' विरतः स श्रमणो भवति । अर्थकादि संख्यया मिथ्यात्वादि लक्षणाऽऽभ्यन्तरपरिग्रह विरति विशदयमाह'एगे' इत्यादि, 'एगे असंजमे ' एकोऽसंयमः-अविरतिलक्षणः, 'दो चेव रागदोसा' द्वौ चैव रागद्वेषौ । तथा-'तिणि य' त्रयश्च 'दंडा' दण्डाः, तथा त्रीणि 'गारवा य' गौरवाणि च, 'गुत्तीओ' गुप्तयः, 'तिण्णि य ' तिस्रश्च । तथागुणों से युक्त होता है वही श्रमण है । यह श्रमण ( आरंभपरिग्गहाओ विरए ) आरंभ और परिग्रह से सर्वथा विरत होना है। पृथिवी आदि जीवों का उपमर्दन जिन क्रियाओं से होता है वे सब आरंभ है। परिग्रह बाध और आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार का होता है । धर्मो. पकरणों से भिन्न वस्तुओं का अपनाना-पास में रखना-तथा धर्मापकरणों पर मूर्छाभाव-ममत्वभाव रखना यह बाह्यपरिग्रह है। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद और अशुभयोग, ये सब अभ्यन्तर परिग्रह हैं। श्रमण वही हो सकता है जो आरंभ और बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से सर्वथा विरत होता है । ( विरए कोहमाणलोभा ) इसी तरह जो क्रोध, मान, माया और लोभ, इनसे विरत होता है वही श्रमण कहलाता है । ( एगे असंजमे, दो चेव रागदोसा, तिणि य दंडा-गारवाय, गुत्तीओ तिण्णि, तिष्णि य विराहणाओ, चत्तारिकसाया, झाणसण्णा, विगहा तहा छे थे २४ श्रम छ. ते श्रम " आरभपरिगहाओ विरए " भान भने પરિગ્રહથી તદ્દન વિરક્ત હોય છે. પૃથિવી આદિ નું ઉપમન જે ક્રિયાએથી થાય છે તે સઘળાને આરંભ કહે છે. પરિગ્રહના બે ભેદ છે-બાહ્ય પરિ. ગ્રહ અને અભ્યાન્તર પરિગ્રહ ધર્મોપકરણે સિવાયની વસ્તુઓ પાસે રાખવી તથા ધર્મોપકણો ઉપર મૂચ્છભાવ. મમત્વભાવ રાખવો તે બાહ્યપરિગ્રહ છે. મિથ્યાત્વ, અવિરતિ, કષાય, પ્રમાદ અને અશુભ ગ એ બધા આવ્યાન્તર પરિગ્રહ છે. જે બાહ્ય અને આભ્યન્તર પરિગ્રહથી સર્વથા વિરક્ત હોય છે તે श्रम यश छ. "विरए कोहमाणमायालोमा” से प्रभारी ४ ओध, मान, भाया मने दोमयी २हित सोय छे ते ४ श्रम ४ाय छे. “ एगे असंजमे, दोचेव रागदोसा, तिण्णियदंडा-गारवाय, गुत्तीओ तिपिण, तिण्णि य विरोहणाओ, For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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