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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - ૨. प्रश्नव्याकरणसूत्रे ___ एभिः शालन्ते शोभन्ते यास्ताभिः, तथा- अगुकूलपेमियाहिं ' अनुकूलप्रेमिकाभिः अनुकूलं-मनोऽभिरुचिकरं प्रेम-प्रीतिर्यासां ताभिः, एतादृशीभिः 'सद्धि' सार्धम् , 'अणूभृया' अनुभूता=अनुभवविषयीकृताः 'सएणसंपजोगा' शयनसंप्रयोगाः शयनानि च संप्रयोगाः सम्पश्चेिति इतरेतरयोगद्वन्दः, शयनसंप्रयोगाः ? इत्याह-' उ उ मुहवरकुसुममुरभिचंदनसुगंधवरसासधूप सुहफरिसवस्थभूसणगुणोक्वेया' ऋतुमुखबरकुसुमसुरविचन्दनमुगन्धवस्वासधूप सुष्वस्पर्शवस्त्रभूघणगुणोपपेताः, तत्र-ऋतुमुखानि कालोचितानि यानि वस्कुसुमानि तथा-सुरभिचन्दनस्य सुगन्धो शोभनामोदयुक्तो वरः श्रेष्ठो यो वासः गन्धः सः, तथा-धूपः, तथा-सुखस्पशोनि यानि वस्त्राणि, तथा-भूषणानि च, तेषां ये गुणास्तैरुपपेता. स्ते श्रमणेन द्रष्टुं कपयितुं स्मर्तु वा न चोग्याः । तथा-'रमणिज्जा उज्ज-गेज्जपविक्खेवविलाससालिणीहिं ) हाव, भाव, ललित, विक्षेप और विलास से सुहावना स्त्रियों के साथ तथा (अणुकूलपेमियाहिं ) जिनकी प्रीति मन को मुदित करने वाली होती है ऐसी (इत्थीहिं सदि) स्त्रीयों केसाथ भोगे गये शयन संबंधी और संपर्क संबंधो पूर्वकालिक भोगों का कि जो ( उ उमुहबरकुतुमसुरभि चंदण सुगंध-वर-वासधूय-सुहकरिसवत्यभूसण-गुणोववेया) कालोचित कुसुमों की सुगंधि आदि रूप गुणों से विशेष रूप में आकर्षक होते थे, सुरभिचंदन की श्रेष्ट गंध से जो मनोमोहक बने रहते थे, कृष्णागुरु आदि मुगंधित द्रव्यों की धूप के संसर्ग से जिनमें से महक उड़ा करती थी तथा वस्त्र और आभूषणों के आडम्बर की छटा से जिन्हे भोगने लिए चित्त परबस लालायित धन जाया करता था, उन सब साबु को कभी भी स्मरगा नहीं करना चाहिये, किसी से ऐसे भोगों की बातें नहीं करना चाहिये और न ऐसे लिणीहि " १, प, विक्ष५ मने पियासी शामती श्रीमानी साथे तथा " अणुकूलमियाहि " 2ी प्रीति भन्ने मानांडित : ४२नारी य छे थेपी " इत्थीहिं सद्धि " श्रीमानी साथे लोग शयन सधी सभा समाधी पूर्व सि लागानु रे ' उ उ मुहवर-कुसुमसुरभि-चंदण-सुगंध-वरसाधूबसुह फरिसवस्थ-भूमण-गुणोववेया " सोथित पुष्पोन! सुनधी माहि३५ गुणधी વિશેષ આકર્ષક થતું હતું, સુરભિ ચંદનની શ્રેષ્ઠ ગંધથી જે મનહર બનતું હતું, કૃષ્ણ ગરૂ આદિ સુગંધિત દ્રવ્યના ધૂપના સંસર્ગથી જેનામાં મહક ઉઠયા કરતી હતી તથા વસ્ત્ર અને આભૂષણોના આડંબરની છટાથી જેને ભગવાને માટે મન લલચાઈ ગયાં કરતું હતું, એ બધી વાતનું સાધુએ કદીપણ સ્મરણ કરવું જોઈએ નહીં, કોઈની સાથે એવા ભેગેની વાત કરવી જોઈએ નહીં, For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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