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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याफरणसूत्रे एव गुह्यावकाशिकानि स्त्रीणां गुप्ताङ्गानीत्यर्थः । तथा-'अण्णाणि य एवमाइयाणि' अन्यानि च एवमादिकानि हमितादिसदृशान्यन्यान्यपि, ' तबसंयमवंभचेरघाओवघाइयाइं ' तपः संयमब्रह्मचर्यघातोपयातकानि, 'पावकम्माई' पापकर्माणि 'वं. भचेरं ' ब्रह्मचर्यम् ' अणुचरमाणेणे ' अनुचरता ' न चक्खुसा' न चक्षुषा 'न मणसा' न मनसा ' न वयसा' न वचसा 'पत्थेयब्वाई' प्रार्थयितव्यानि-न चक्षुषा द्रष्टव्यानि, न मनसा चिन्तयितच्यानि, न वचसा प्रार्थयितव्यानीत्यर्थः । एवम् अनेन प्रकारेण ' इत्थी रूचिरइसमिइजोगेण' स्त्रीरूपविरतिसमितियोगेनस्त्रीणां यद् रूपं ततो या विरतिस्तद्रूपो यः समितियोगस्तेन भावितोऽन्तरात्मा जीवः ' आरयमणा' आरतमनाः ब्रह्मचर्यासत्तचित्तो विश्वग्रामधर्मों जितेन्द्रियो ब्रह्मचर्यगुप्तश्च भवति ॥५०८॥ पावकम्माइं तवसंजमबंभचेरघाओवघाइयाई ) इसी प्रकार की और भी पाप कर्मरूप वातों का कि जो तप, संजम एनं ब्रह्म वयं व्रत को एकदेश से अथवा सर्वदेश से घात करने वाली हों (बंभचेरं अणुचरमाणेणं ) ब्रह्मचर्य व्रत की आराधना करने वाले साधु को (न चक्खुसा) राग संयुक्त होकर न आंखों से निरीक्षण करना चाहिये, ( ज मणसा) न मन से विचार करना चाहिये, और (न वयसा) न वचन से ( पत्थेयव्वाइं) प्रार्थना करना चाहिये । ( एवं इत्थीरूवविरइसमिइ जोगेण भाविओ अंतरप्पा आरयनगा विरयगामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते भवइ ) इस तरह से स्त्रीरूप निरीक्षण विरतिरूप समिति के योग से संबंधित जीव ब्रह्मचर्य व्रत में आसक्त मनवाला हो जाता है और ग्रामधर्म-भैथुन सेवन से निवृत्त हो जाता है। अत एव वह जीवजितेन्द्रिय बनकर नव विध ब्रह्मचर्य को शुप्ति से अथवा दशविध ब्रह्मपावकम्माइं तवसंजमयंभचेरघाओवघाइयाई" से. ५४२नी भी ५ ५।५ કર્મરૂપ વાતે કે જે તપ, સંયમ અને બ્રહ્મચર્યવ્રતને એક દેશથી અથવા सर्वशयी धात ४२नारी हाय "बभवेरअणु चरमाणेण" ब्रह्मायतनु पासन ४२नार साधु " न चक्चुसा" २३. युत थने तेमनु निरीक्षण ४२७.२ नही, "न मणसा" भनथी विया२ ४२वो नहीं भने “नवयसा" क्यनथी न " पत्थेयव्वाई" प्रार्थना ४२वी . “ एवं इत्थीरूव विरइसमिइजोगेण भाविओ अंतरप्पा आरयमणा विरयगामधम्मे जिइंदिए बभचेरगुत्त भव" । प्रभारी स्वी३५ નિરીક્ષણ વિરતિરૂપ સમિતિના ચેગથી ભાવિત જીવ બ્રહ્મચર્યવ્રતમાં આસક્ત મનવાળા થઈ જાય છે, અને ગામધર્મ મૈથુનના સેવનથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે. તેથી તે જીવ જિતેન્દ્રિય બનીને નવવિધ બ્રહ્મચર્યની ગુપ્તિથી અથવા દશવિધ For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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