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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नव्याकरणसूत्रे टीका-'बीयं द्वितीयां स्त्रीकथाविरतिलक्षणां भावनामाह 'नारीजणस्स' नारीजनस्य स्त्रीपर्षदो 'मज्झे' मध्येऽन्तराले न नैव 'कहेयवा' कथयितव्या 'कहा' कथावाक्यप्रबन्धरूपा । कथामेव विशिनष्टि'विचित्ता' विचित्रा-विचित्रत्तान्तसमन्त्रिता, तथा-' विवोकविलाससंपउत्ता' 'विवोकविलाससंप्रयुक्ता-' विवौका अत्यभिमानवशादिष्टेऽपि वस्तुन्यनादरकरणम् , तदुक्तम्-'निव्वोकस्त्यतिगर्वेण वस्तुनीष्टेऽप्यनादरः, इति । विलासः= स्थानासनगमनानां हस्तभ्रनेत्रकर्मणां चैव यो विशेषः स तदुक्तम्-" स्थानासनगमनानां इस्तभूनेत्रकर्मणां चैव ! उत्पद्यते विशेषो यः श्लष्टः स तु दिलासः स्यात् ॥” इति । विबोकवि अब सूत्रकार स्त्रीकथाविरति नामकी द्वितीय भावना को प्रदर्शित करते हैं-'बीयं नारीजणस्स' इत्यादि। टीकार्थ--(बीयं दूसरी स्त्रीकथाविरति रामकी भावना इस प्रकार से है- (नारीजणस्स मज्झे) स्त्रियों के बीच में बैठकर साधु को (कहा ) कथाएँ कि जो (विचित्ता) विचित्र वृत्तान्तों से युक्त हो (वियोकविलाससंपउत्ता) इष्ट वस्तु में भी अनादर कराने वाली हों तथा विलासभाव बढानेवाली हों ( न कहेयव्वा) नहीं करना चाहिये । अति अभिमान के वश से इष्ट वस्तु में भी अनादर करना इसका नाम विन्धोक है, तथा स्थान, आसन, गमन में एवं हस्त, भ्र, नेत्र इन की क्रियाओं में विशेषता आना इसका नाम गिलास है। ये दोनों प्रकार की विशेष चेष्टाएँ स्त्रियों में शृंगारभावजनित हुआ करती हैं। विन्वोक और विलास इन दोनों से जो कथाएँ युक्त हों वे साधु को ३. सूत्र.२ " स्त्रीकथाविरति " नामनी थी भावना मताचे छ" बीयं नारी जणस्स" त्यहि थ-"बीयं" सी था नामनी भावना मा प्रभारी छ-" नारीजणस्स मज्झे" खीमानी १-ये मेसीने साधुसे सवा "कहा" था। रे "विचित्ता" वियित्र ! पी डाय “ विवोकविलाससंपउत्ता" ४८वस्तुमा ५ मना४२ शवनारी डाय तथा वितासभाव वधापनारी डाय " न कहेयव्वा ते वीन નહીં અતિ અભિમાનને વશ થઈને ઈષ્ટ વસ્તુને પણ અનાદર કરે તેને વિક કહે છે, તથા સ્થાન, આસન, ગમનમાં અને, હાથ, ભ્ર નેત્ર વગેરેની ક્રિયામાં વિશેષતા આવે તે વિલાસ ગણાય છે. એ બન્ને પ્રકારની વિશેષ ચેષ્ટાઓથી સ્ત્રીઓમાં શૃંગાર ભાવ પેદા થાય છે. વિવેક અને વિલાસ એ બનેથી For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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