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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८०८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे वासः = स्थानम् तत्र या वसतिः = निवासस्तद्रूपो यः समितियोगस्तेन 'भाविओ' भावितः = वासितः ' अंतरप्पा ' अन्तरात्मा - जीवः ' आरयमणा' आरतमनाःआसमन्तात् तं ब्रह्मचर्ये संसक्तं मनो यस्य स तथा पुनः - विरयगामधम्मे विरत ग्रामधर्मः = निवृत्तो ग्रामधर्मात मैथुनाद् यः स तथा अत एव - ' जिइंदिए ' जितेन्द्रियः=वशीकृतेन्द्रियः, ' वंभचेरगुत्ते ' ब्रह्मचर्यगुप्तः = नवविध ब्रह्मचर्यसहितः दशविधब्रह्मचर्य - सगाधिस्थानयुक्तो वा ' भवइ' भवति ॥ सु० ६ ॥ 1 बसति समिइ जोगेण ) इस प्रकार स्त्री, पशु, पंडक के संसर्ग से रहित स्थान में ठहरने रूप समिति के योग से ( भाविओ अंतरप्पा ) भावित अंतरात्मा - मुनि (आरयमणा ) सर्व प्रकार से ब्रह्मचर्य व्रत में संसक्त मन वाला हो जाता हैं और - (विरयगामधम्मो ) ग्राम धर्म - मैथुन से विरत हो जाता है । अतएव - वह (जिइंदिए बंभचेरगुत्ते भवइ ) जितेन्द्रिय बनकर नवविधब्रह्मचर्य की गुप्ति से अथवा दशविध ब्रह्मचर्य समाधी स्थान से युक्त बन जाता है भावार्थ - इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने ब्रह्मचर्य व्रत को स्थिर रखने बाली पांच भावनाओं में से प्रथम स्त्रीपशु पंडक सेवित शयनासन वर्जन रूप भावना का स्वरूप स्पष्ट किया है । साधुजन को ऐसी ही वसतिस्थान में निवास करने को प्रभु की आज्ञा है कि जो निर्दोष हो । स्त्री पशु पंडक आदि के संसर्ग से रहित हो। क्यों कि ऐसे स्थान में निवास करने से साधु के ब्रह्मचर्य व्रत का देश से भंग अथवा सर्वथा भंग हो सकता है। तथा जिस स्थान पर बैठकर स्त्रियां विविध આ રીતે સ્રી, પશુ, અને પંડકના સ ંસર્ગથી રહિત સ્થાનમાં રહેવા રૂપ सभितिना योगथी “भाविओ अंतरप्पा" लावित अंतरात्मा - भुनि " आरयमणा" हरे प्रारे श्रार्य व्रतमा दृढ भरवाजा यह भूय छे भने “विरयगामवम्मो" श्राभधर्म-मैथुनथी भुक्त यह लय छे. तेथी ते " जिइंदियबंभचेरगुत्ते भवइ ' જિતેન્દ્રિય થઈને નવ વિધ બ્રહ્નચની ગુપ્તિથી અથવા દેશવિધ પ્રહ્મચય સમાધિ સ્થાનથી યુક્ત બની જાય છે. " भावार्थ- —આ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકારે પ્રહ્મચર્ય વ્રતને સ્થિર રાખવાની પાંચ ભાવનાઓમાંથી સૌથી પહેલી સ્ત્રી, પશુ, પંડક સેવિત શયનાસન વનરૂપ ભાવનાનું સ્વરૂપ સ્પષ્ટ કર્યું" છે. સાધુજનાને એવા સ્થાનમાં વસવાની પ્રભુની આજ્ઞા છે કે જે નિર્દોષ હાય, સ્ત્રી, પશુ, પ’ડક આદિના સંસર્ગથી રહિત હાય. કારણ કે એવા સ્થાનમાં વસવાથી સાધુના બ્રહ્મચર્ય વ્રતને અંશતઃ ભંગ થાય છે અથવા સર્વથા ભંગ થઇ શકે છે, તથા જે સ્થાને બેસીને For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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