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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शिनी टीका४ अ0 ४ सू०३ ब्रह्मचर्याराधनफलम् ७९५ तथा-'सुद्धचरिएणं' शुद्धचरितेन=सम्यगाचरितेन 'जेण' येन ब्रह्मचर्येण, ' भवइ ' भवति ' सुवंभणो' सुब्राह्मणः आत्मज्ञानतत्परः, · सुसमणो' मुश्रमणः सुतपरस्त्री 'सुसाहू ' सुसाधुः निर्वाणसाधकः 'सुईसी' सुऋषिः, यथाद्वस्तुदर्शकः, 'मुमुणी ' मुमुनिः जिनाज्ञाधारकः, 'सुसंजए' सुसंयतः परमयतनापरायणः । तथा स एव 'भिक्खू ' भिक्षुः सर्वत्यागी परमपुरुषार्थसाधको वा, जो यः ‘सुद्धं' शुद्ध 'बंभचेर' ब्रह्मचर्य 'चरई' चरति पालयति॥३॥ (सुद्धचरिएणं जेग सुबंभणो भवइ ) अच्छी तरह आचरित हुए इस ब्रह्मचर्य से ही मनुष्य सुब्राह्मण-आत्म ज्ञान में तत्पर-होता है, (सुसमणो ) सुश्रमग-मुतपस्वी, (सुसाहू ) सुसाधु-निर्वाण साधक, (सुईसी) सुरुषि-यथावत् वस्तुदर्शक (सुमुणी ) सुमुनि-जिनाज्ञा का आराधक, और ( सुसंजए ) सुसंयत परम यतना में परायण होता है। तथा ( स एव भिक्खू) वही सच्चा भिक्खू है-सर्व त्यागी-अथवापरम पुरुषार्थ साधक है, (जो सुद्धं बंभचेरं चरइ ) जो इस ब्रह्मचर्य को शुद्ध रीति से पालता है। ___ भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा इस ब्रह्मचर्य की गुणगरिमा (महिमा) का ही कथन किया है । वे कहते हैं कि इस एक ब्रह्मचर्य व्रतके पूर्णरूपसे ओरांधिक होनेपर सत्य, शील आदि जितने भी सद्गुण हैं वे सब आराधित हो जाते हैं । यह ब्रह्मचर्य पंचमहाव्रतों का मूलकारण है । अतायावज्जीव साधु को इसका सेवन करते रहना चाहिये । जिस "सुद्धचरिएणं जेण सुबंभणो भवइ ' सारी ते मायामा भारत या प्राय था। मनुष्य सुनाए- मारम शानभा त५२ थाय छे, "सुसमणो" सुश्रभ-सुत५२वी-“ सुसाहू " सुसाधु-नि सा५४, "सुईसी"सुऋषि-यथावत् परंतु ४४, “ सुमुणी" लिन माज्ञाने। भारा५४, भने “सुसंजए" सुसयत५२म यतनामा पराया थाय छ, तथा “स एव भिक्खू " ते २१ सायो लिभु छे-सत्या म२५१ ५२५ पुरुषार्थ साध४ छ, “जो सुद्धं बंभचेर चरह" २ આ બ્રહ્મચર્યને શુદ્ધ રીતે પાળે છે. ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા બ્રહ્મચર્યના ગુણ ગૌરવનું જ વર્ણન કર્યું છે. તેઓ કહે છે કે આ એક બ્રહ્મચર્ય વ્રતનું પૂર્ણ સ્વરૂપે આરાધના કરવામાં આવે તે સત્ય, શીલ આદિ જેટલા સદ્દગુણ છે તેમનું આરાધન આપોઆપ થઈ જાય છે. આ બ્રહ્મચર્ય પાંચ મહાવ્રતનું મૂળ કારણ છે. તેથી સાધુએ જીવનપર્યન્ત તેનું સેવન કરવું જોઈએ. જે રીતે મૂળ વિના કઈ પણ વસ્તુની For Private And Personal Use Only
SR No.020574
Book TitlePrashnavyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1002
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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